Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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अध्याय – 4 वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन
परिच्छेद - 1 | कवि की काव्यात्मकता एवं अलंकारों का प्रयोग |
वीरोदय महाकाव्य बाल ब्रह्मचारी महाकवि पंडित भूरामल जी की यशस्वी लेखनी से प्रसूत है। जो क्रमशः जैनमुनि अवस्था में आचार्य ज्ञानसागर जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। विषयों की आशा से विरक्त, अपरिग्रही, करूणा-सागर, कवि-हृदय, शान्तस्वभावी, ज्ञान-ध्यान-तप में लवलीन, साधना में कठोर, तेजस्वी महात्मा। बस यही था उनका अन्तर का आभास।
श्री भूरामल जी एक ऐसे महाकवि हैं, जिन्होंने निरन्तर आत्म-साधना की ओर अग्रसर रहते हुए एक नहीं, अनेक महाकाव्यों का सृजन किया। ऐसा प्रतीत होता है कि आत्म-साधक योगी के लिए काव्य भी आत्म-साधना का अंग बन गया है और सम्पूर्ण जीवन काव्यमय हो गया। ऐसे व्यक्तित्व के धनी योगी का जन्म राजस्थान में जयपुर के समीप सीकर जिले के राणोली ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री चतुर्भुज एवं माता का नाम श्रीमती घृतदेवी था।'
ब्रह्मचर्य-व्रत अंगीकार कर आत्म कल्याण एवं जैनकाव्य-निर्माण के इच्छुक पं. भूरामल शास्त्री दुकान के काम की ओर से उदासीन होकर ज्ञानाराधन में ही लीन हो गये। उन्होंने अध्ययन एवं लेखन को ही अपनी दिनचर्या बना लिया। सरस्वती की आराधना करते हुए उन्होंने जैन-साहित्य एवं दर्शन की अभिवृद्धि की। उनके ग्रन्थ संस्कृत एवं हिन्दी दोनों ही भाषाओं में हैं।