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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
एक कषाय से अर्थात् जान-बूझकर और दूसरे अयत्नाचार या असावधानी से । इसीको स्पष्ट करते हुए शास्त्रकारों ने लिखा है
उच्चालिदम्मि पादे
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इरियासमिदस्स णिग्गमठाणे । आवादेज्ज कुलिंगो मरेज्ज तं जोग मासेज्ज ।। ण हि तस्स तणिमित्तो बंधो सुमो वि देसिदो समये ।
अर्थात् जो मनुष्य आगे देख-भालकर रास्ता चल रहा है। उसके पैर उठाने पर अगर कोई जीव पैर के नीचे आ जावे और कुचल कर मर जावे तो उस मनुष्य को जीव मारने का थोड़ा-सा भी पाप आगम में नहीं कहा। आगे कहा है
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मरदु व जीवदु जीवो अजदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्सु ।।
जीव चाहे जिये चाहे मरे, असावधानी से काम करने वाले को हिंसा का पाप अवश्य लगता है, किन्तु जो सावधानी से काम कर रहा है उसे प्राणिवध होने पर भी हिंसा का पाप नहीं लगता क्योंकि उसे अभिप्राय में हिंसा (प्राणघात) करने का किन्चित् भी भाव नहीं है । अहिंसा को व्यवहार्य बनाने के लिये जैसे हिंसा के द्रव्यहिंसा और भाव हिंसा भेद किये गये हैं, वैसे ही अहिंसा के भी अनेक भेद किये गये हैं। गृहस्थ और साधु के भेद से अहिंसा दो भागों में विभक्त की गई है। जैनधर्म की अहिंसा या तो वीरता का पाठ पढ़ाती है या क्षमा का ।
आचार्यश्री ने वीरोदय में अहिंसा के विषय में कहा है "अहिंसा सर्व प्राणियों की संसार में रक्षा करती है, इसलिए वह माता कहलाती है हिंसा परस्पर में खाने को कहती है और अकस्मात् ही सबसे शत्रुता उत्पन्न करती है, इसलिये वह राक्षसी है । अतएव अहिंसा उपादेय है। अहिंसा कर्त्तव्यच्युत नहीं करती, किन्तु कर्त्तव्य का बोध कराकर अकर्त्तव्य से बचाती है और कर्त्तव्य पर दृढ़ करती है । अतः अहिंसा न अव्यवहार्य है और न निर्बलता की जननी है।
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