Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
View full book text
________________
वीरोदय का स्वरूप
169
च'। यह निर्जरा दो प्रकार की है – (1) अविपाक निर्जरा, (2) सविपाक निर्जरा । तप आदि साधनाओं के द्वारा कर्मों को बलात् उदय में लाकर बिना फल दिये ही झड़ा देना अविपाक निर्जरा है। गुप्ति, समिति और तप रूपी अग्नि से कर्मों को फल देने से पहले ही भस्म कर देना अविपाक निर्जरा है। बद्ध कर्मों का यथासमय उदय में आकर फल देकर झड़ जाना सविपाक निर्जरा है। मोक्ष - जीवन का अन्तिम लक्ष्य मानने के कारण जैनाचार्यों ने मोक्ष तथा मोक्षमार्ग पर विस्तार से विचार किया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है कि जब यह जीव कर्ममल से विप्रमुक्त होता है, तब सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होकर उर्ध्वलोक के अन्तिम भाग को प्राप्त हो जाता है और अनन्त अतीन्द्रिय-सुख को प्राप्त करता रहता है।
कम्ममल विप्पमुक्को उड्ढें लोगस्स अंतमधिगंता। सो सव्वणाण-दरिसी लहदि सुहमणिंदियमणंतं।।
-पंचास्तिकाय गाथा. 28 | ___ जो आत्मा संसारावस्था में इन्द्रिय- जनित बाधा-सहित पराधीन और मूर्तिक सुख क अनुभव करता था वही चिदात्मा मुक्त-अवस्था में सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होकर अनन्त, अव्याबाध, स्वाधीन और अमूर्तिक सुख का अनुभव करता है। जदो सयं स चेदा सव्वण्हू सव्वलोग दरसी य। पप्पोदि सुहमणंतं अव्वावाधं सगममुत्तं।।
-पंचास्तिकाय. गाथा.29 | तत्त्वार्थसूत्र के अन्तिम अध्याय में आ. उमास्वामी ने मोक्ष के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द की तरह ही विचार व्यक्त किये हैं। उन्होंने कहा है – मोह के क्षय से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय के क्षय से जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है, फिर बन्ध के कारणों का अभाव तथा निर्जरा के द्वारा समस्त कर्मों से मुक्त होकर लोक के अन्त में ऊपर चला जाता है।