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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
मिच्छात्ताविरदिपमादजोग - कोहादओऽथ
विष्णेया ।
पण पण पणदस तिय चदु कमसो भेदा दु पुव्वस्स ।। 30 ।। - द्रव्यसंग्रह |
बन्ध तत्त्व
दो पदार्थों के विशिष्ट सम्बन्ध को "बन्ध" कहते हैं । बन्ध के भी दो भेद हैं। (1) भावबन्ध और (2) द्रव्यबन्ध | जिन मोह, राग-द्वेष आदि विकारी भावों से कर्म का बन्ध होता है, उन भावों को "भावबन्ध" कहते हैं और कर्म - पुद्गलों का आत्म- प्रदेशों से सम्बन्ध होना “द्रव्य-बन्ध” कहलाता है ।
द्रव्य बन्ध आत्मा और पुद्गल का सम्बन्ध है । कर्म और आत्मा के एकक्षेत्रावगाही सम्बन्ध को बन्ध कहा जाता है। जो आत्मा कषायवान् है, वही आत्मा कर्मों को ग्रहण करती है । यदि लोहे का गोला गर्म न हो, तो पानी को ग्रहण नहीं कर पाता है । पर गर्म होने पर वह पानी को अपनी ओर खींचता है, उसी प्रकार शुद्धात्मा कर्मों को ग्रहण नहीं करती, पर जब कषाय-सहित आत्मा प्रवृत्ति करती है, तो वह प्रत्येक समय में निरन्तर कर्मों को ग्रहण करती रहती है। कर्मों को ग्रहण कर उनसे संश्लेष को प्राप्त हो जाना ही बन्ध है । बन्ध के योग और कषाय ये दो प्रधान हेतु हैं। भेद विवक्षा से मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद कषाय और योग ये पाँच बन्ध के हेतु हैं।
संवर - आस्रव का निरोध संवर है । 'आस्रव निरोधः संवरः" जिन द्वारों से कर्मों का आस्रव होता है, उन द्वारों का निरोध कर देना संवर कहलाता है । आस्रव, योग से होता है । अतएव योग की निवृत्ति ही संवर है। वस्तुतः नवीन कर्मों का आना में न आना ही संवर है । यदि नवीन कर्मों का आगमन सर्वदा जीव में होता रहे, तो कभी भी कर्म-बन्ध से छुटकारा नहीं मिल सकता ।
निर्जरा - निर्जरा का अर्थ है जर्जरित कर देना या झाड़ देना । बद्ध कर्मों को नष्ट कर देना या पृथक् कर देना निर्जरा तत्व है। 'तपसा निर्जरा