Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय का स्वरूप
165 में अस्तित्व और नास्तित्व धर्म सिद्ध होते हैं। प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा अस्तिरूप है और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा नास्तिरूप है।
वस्तुतत्त्व अनेक शक्त्यात्मक है, अनेक शक्तियों का पुञ्ज है। जब कोई मनुष्य एक शक्ति की अपेक्षा से उसका वर्णन करता है तब वह अन्य शक्तियों से भी सत्व का अन्य अपेक्षाओं से समर्थन करता ही है। 'स्यात्'-पद (कथञ्चित्) के प्रयोग का नाम ही "स्याद्वाद" है। इसे ही कथञ्चिद्-वाद या अनेकान्त कहते हैं। साततत्व व्यवस्था तथा कर्म-सिद्धान्त
जैनधर्म में कर्मसिद्धान्त का विस्तार से सूक्ष्मातिसूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। जैनदृष्टि से कर्म अचेतन या जड़ रूप है, किन्तु जीव के साथ स्वर्ण और पाषाण की तरह अनादिकाल से सम्बद्ध है। जैसे विविध उपायों से स्वर्ण को शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार आत्मा को भी कर्मों से सर्वथा मुक्त किया जा सकता है। कर्म विषयक इस मूल चिन्तन ने सप्त तत्त्वों के सिद्धान्त को प्रतिष्ठित किया है। सात तत्त्व इस प्रकार हैं- 1. जीव, 2. अजीव, 3. आस्रव, 4. बन्ध, 5. संवर, 6. निर्जरा, 7. मोक्ष। 'जीवाजीवासवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्'।
- त.सू.अ.-1 सूत्र.41 अजीव रूप कर्म व कर्म से जीव को बद्ध करने के लिए उत्तरदायी आस्रव और बंध है तथा मुक्त करने लिये उत्तरदायी संवर और निर्जरा हैं। . सम्पूर्ण रूप से कर्मों की निर्जरा होने पर जीव कर्ममुक्त होकर अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।
जैन-आचार कर्म-सिद्धान्त की आधार-शिला पर निर्मित हुआ है। इसलिये सामान्य रूप से कर्म-सिद्धान्त पर दृष्टिपात करना उपयुक्त होगा। जैन-आचार्यों ने शरीर, वचन, और मन की प्रवृत्ति को कर्मों का आस्रव माना है। यह शुभ और अशुभ दो प्रकार का होता है।