Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन एदासिं भासाणं तालुवदंतोट्ठकंठवावारे। परिहरिय एक्ककालं भव्य-जणे दिव्व-भासित्तं ।।
-तिलोयपण्णत्ती 910-911 (अधि. 4) हरिवंशपुराण में लिखा है कि ओठों को बिना हिलाये ही निकली हुई तीर्थंकरवाणी ने तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों का दृष्टि-मोह नष्ट कर दिया था -
जिनभाषाऽधरस्पन्दमन्तरेण विजृम्भिता। तिर्यग्देवमनुष्याणां दृष्टिमोहमनीनशत् ।।
हरिवंश पुराण 2/113 ।। महापुराण में कहा है कि भगवान के मुख-कमल से बादलों की गर्जना जैसी अतिशय युक्त महा दिव्यध्वनि निकल रही थी। भव्य-जीवों के मन में स्थिति मोह रूपी अन्धकार को नष्ट करती हुई सूर्य के समान सुशोभित हो रही थी। इसमें सभी अक्षर स्पष्ट थे। लगता था मानों गुफा के अग्रभाग से प्रतिध्वनि ही निकल रही हो। दिव्यमहाध्वनिरस्य मुखाब्जान्मघरवानुकृतिर्निर्गच्छत् । भव्यमनोगतमोहतमोघ्नन्नद्युतदेष यथैव तमोऽरिः।।
-महापुराण 23/69 | दिव्यध्वनि के सम्बन्ध में कुछ आचार्यों का अभिमत है कि यह सर्वहित करने के कारण वर्णविन्यास से रहित है। कुछ आचार्य इसे अक्षरात्मक ही मानते हैं। अक्षरात्मक शब्द संस्कृतादि भाषा के हेतु हैं। अनक्षरात्मक शब्द द्वीन्द्रियादि के शब्द-रूप होते हैं। दिव्यध्वनि को अनक्षरात्मक इसलिए कहा जाता है कि वह जब तक सुनने वाले के कर्ण-प्रदेश को प्राप्त नहीं होती, तब तक अनक्षरात्मक है और जब कर्ण-प्रदेश को प्राप्त हो जाती है, तब अक्षररूप होकर श्रोता के संशयादि को दूर करती है। अतः अक्षरात्मक कही जाती है। आचार्य समन्तभद्र ने अपने स्वयंभूस्तोत्र में तीर्थंकर महावीर की दिव्यध्वनि को सर्तभाषात्मक