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वीरोदय का स्वरूप
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श्रवण करता था। उनकी उपकारी वाणी प्राणियों के हृदय का कालुष्य सहज ही दूर करती थी। जनता ने सहस्राब्दियों के बाद पहली बार धर्म की व्यापक लोकोपयोगिता समझी थी। उनकी प्रेरणा और उद्बोधन से शोषण और वर्गभेद की प्रवृत्ति समाप्त हो गई थी। तथा अहिंसा और संयम की अपराजेय शक्तियाँ विकसित हो गई थीं। इस प्रकार तीर्थंकर महावीर ने लगभग तीस वर्षों तक धर्मामृत का वर्षण कर तत्कालीन समाज को तृप्त किया। गृहस्थ धर्म एवं मुनि धर्म का वर्णन
कर्त्तव्याकर्त्तव्य के विषय में आचार्य श्री ज्ञानसागर ने लिखा है कि गृहस्थ के आजीविका का अभाव ही अकृत्य है और साधु को आजीविका करना भी अकृत्य है। राजा होकर यदि दुष्टों को दण्ड न दे तो यह उसका अकृत्य है और यदि राज्यापराधियों को मुनि दण्ड देने लगे तो यह उसका अकृत्य है। धर्म दो प्रकार का है (1) गृहस्थ धर्म (2) मुनिधर्म। संसारवर्ती गृहस्थों के अणुव्रत होते हैं और गृहत्यागी मुनियों के महाव्रत होते हैं। गृहस्थ-धर्म
गृहस्थ धर्म के लिये प्राकृत ग्रन्थों में सावय, सावग और उवासग तथा संस्कृत ग्रन्थों में श्रावक, उपासक और सागार शब्दों का प्रयोग किया गया है। उक्त आधार पर गृहस्थ धर्म को सावयधम्म, श्रावकाचार, उपासकाचार, सागारधर्म आदि नाम लिये गये हैं। तथा गृहस्थाचार विषयक ग्रन्थों के श्रावकाचार, उपासकाध्ययन, उपासकाचार सागारधर्मात आदि नाम रखे गये हैं। कुछ अन्य ग्रन्थ, जिनमें श्रावकाचार का वर्णन किया गया है, इनसे भिन्न नामों से भी लिखे गये। जैसे- समन्तभद्र का रत्नकरण्डक, अमृतचन्द्र का पुरूषार्थसिद्धयुपाय और पद्मनन्दि की पंचविंशतिका । गृहस्थ धर्म, मुनि- धर्म की नींव है, क्योंकि इसी पर ही मुनि-आचार का भव्य प्रासाद खड़ा होता है। एक गृहस्थ ही बाद में मुनि-दीक्षा धारण करके मोक्ष प्राप्त करता है।
जैन-शास्त्रों में लिखा है कि गृहस्थ-धर्म का पालन वही कर सकता है जो न्याय से धन कमाता है, गुणीजनों का आदर करता है, मीठी