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144 वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
1. देशावकाशिक, 2. सामायिक, 3. प्रोषधोपवास, 4. वैयावृत्य- ये चार शिक्षाव्रत कहे गये हैं। मुनि व्रत की शिक्षा के लिये जो व्रत होते हैं, वे शिक्षाव्रत कहलाते हैं। प्रयत्नपूर्वक सामायिक करना, प्रोषधोपवास धारण करना, अतिथिसंविभाग और आयु क्षय होने पर सल्लेखना धारण करना ये चार शिक्षाव्रत हैं। 1. देशावकाशिक शिक्षाव्रत
मर्यादित देश में नियत काल तक रहना 'देशावकाश' कहलाता है। देशावकाश जिस प्रकार का प्रयोजन है, उसे 'देशावकाशिक व्रत' कहते हैं। प्राणी को प्रतिदिन प्रातःकाल समय की अवधि में लेकर अपने यातायात की सीमा निश्चित कर क्षेत्र को संकुचित कर लेना चाहिए। 2. सामायिक शिक्षाव्रत
मर्यादा के बाहर तथा भीतर के क्षेत्र में सर्वत्र ही समस्त मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा कार्य की मर्यादा करके पाँच पापों का पूर्ण त्याग करना ‘सामायिक शिक्षाव्रत कहलाता है। 3. प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत
चारों प्रकार के आहारों का त्याग करना 'उपवास कहलाता है, तथा एक बार भोजन करना प्रोषध कहलाता है। धारणा, पारणा के दिन एकाशन के साथ पर्व के दिन जो उपवास किया जाता है, वह प्रोषधोपवास है। एकासन के साथ अष्टमी व चतुर्दशी को उपवास करना भी प्रोषधोपवास
है।
4. अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत
पूर्व-सूचना के बिना परिग्रह-रहित और सम्यग्दर्शनादि गुणों से युक्त जो मुनिराज घर आते हैं, वे अतिथि. कहे जाते हैं। इनके लिये आदरपूर्वक भिक्षा, उपकरण आदि देना अतिथिसंविभाग है। अष्ट मूलगुण
मुख्य गुणों को "मूल-गुण" कहा जाता है। जैसे नींव के बिना मकान की स्थिति नहीं होती, जड़ के बिना वृक्ष की स्थिति नहीं हो सकती।