Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय का स्वरूप
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4. आदान-निक्षेपणसमिति - जीव रक्षा का भाव होने कारण मुनिराज पिच्छि-कमण्डलु आदि को सावधानीपूर्वक रखते और उठाते हैं। यही आदान-निक्षेपण समिति है। 5. व्युत्सर्ग समिति - जीव-जन्तु से रहित भूमि पर मल-मूत्र का त्याग करना व्युत्सर्गसमिति है। गुप्ति – मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को रोकना गुप्ति है। पंचेन्द्रिय निग्रह - जो विषय इन्द्रियों को लुभावने लगते हैं, उनमें मुनिराज राग नहीं करते और जो विषय इन्द्रियों को बुरे लगते हैं, उनमें द्वेष नहीं करते। यही पंचेन्द्रिय निग्रह कहलाता है। सात भय -
1. इस लोक का भय, 2. परलोक का भय, 3. मरण भय, 4. वेदना भय, 5. अरक्षा भय, 6. अगुप्ति भय, 7. आकस्मिक भय। मुनिराज इन सात भयों का भी त्याग करते हैं। आठ मद – ज्ञान/पूजा/कुल/जाति/बल/ऋद्धि/तप/रूप/इन आठ के आश्रय से मद होते हैं। मुनिराज इन आठों मदों का भी त्याग करते
हैं।
आचार्य श्री ने वीरोदय महाकाव्य में साधु के कर्तव्य अकर्तव्य का कथन संक्षेप में किया है। यहाँ साधु-जीवन का मुख्य लक्ष्य सिद्धि पाना कहा है तथा जीव और पुदगल के विश्लेषण को सिद्धि कहा है। जीव पुद्गल का विश्लेषण ही भेद-विज्ञान है। भेद-विज्ञान से ही मोक्ष की सिद्धि होती है। इसी मोक्ष को पाना साधु जीवन का प्रमुख ध्येय होता है। यह सिद्धि (मोक्ष) ध्यान (आत्मचिन्तन) से पा सकते हैं। इसलिए साधु को सदा आत्मध्यान करना चाहिए। जब ध्यान में चित्त न लगे तब स्वाध्याय करना चाहिए। स्वाध्याय और ध्यान के सिवाय और सब कार्य साधु को हेय हैं, संसार-वृद्धि के कारण हैं। यही साधु का सत्-जीवन है। (22/18) सिद्धि चाहने वाले (मुमुक्ष) साधु को सदा सांसारिक वस्तुओं की चाह छोड़कर चित्त को निस्पृह बनाना, इन्द्रियों को जीतना और प्राणायाम करना चाहिए; क्योंकि कार्यसिद्धि में ये ही उपकारी हैं। (23/18) आत्म-साधना