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वीरोदय का स्वरूप
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परिच्छेद - 3 समोशरण की रचना
तीर्थंकर महावीर ने अर्हत्व प्राप्त कर लिया। उनके ज्ञान के अपूर्व प्रकाश से सारा संसार जगमगा उठा, दिशायें शान्त एवं विशुद्ध हो गई। मन्द-मन्द सुखद पवन बहने लगा। सौधर्म इन्द्र और अन्य चतुर्निकाय देव महावीर के केवलज्ञान की पूजा कर चुके थे। इन्द्र ने अपने कोषाध्यक्ष कुबेर को एक विशाल सभा–मण्डप (समवशरण) की रचना का आदेश दिया।' उसने ऋजुकूला के तट पर अविलम्ब विशाल एवं भव्य समवशरण की रचना की। उसकी शोभा अप्रतिम और सजावट अद्वितीय थी। यह विश्व के गौरव का और आत्मानुशासन का प्रतीक था। इसके चारों द्वारों के आगे धर्म-ध्वजाओं से मण्डित मानस्तम्भ और धर्मचक्र सुशोभित थे। इसमें वनवेदी, तोरण स्तूप आदि रत्नमय एवं चैत्यवृक्ष जिन-प्रतिमाओं से युक्त थे। किसी प्रकार की आकुलता यहाँ नहीं थी। सभी प्राणी शान्त, विनम्र और अनुशासित थे।
पाँच प्रकार के रत्नों से निर्मित चित्र-विचित्र वर्ण वाला प्रथम शाल (कोट) मुक्तिरूपी स्त्री का ऊपर से गिरा हुआ पवित्र कङ्कण जैसा लगता था। वह रत्नों की किरणों के समूह से आकाश में उदित हुए इन्द्रधनुष की शोभा पा रहा था। यथा - रत्नांशकैः पञ्चविधैर्विचित्रः मुक्तेश्च्युतः कङ्कणवत्पवित्रः । शालः स आत्मीयरूचां चयेन सर्जस्तदैन्द्रं धनुरूद्गतेन ।। 5 ।।
-वीरो.सर्ग.13। दूसरा कोट अष्ट मंगल-द्रव्यों सहित चार गोपुर द्वारों से युक्त था, जिस पर प्रतीहार (द्वारपाल) रूप से व्यन्तर देव पहरा दे रहे थे। इसके पश्चात् नाट्यशालायें थीं, जिनमें देव-बालाएं त्रिलोकीनाथ श्री वीरप्रभु का