Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय का स्वरूप
होता, इसलिए शाकपत्रादि ग्राह्य हैं, मांसादि नहीं । आचार्यश्री ने इनमें भेद T करते हुए कहा है कि शाक पकाने पर मांस के समान दुर्गन्ध नहीं आती है तथा शाकपत्रादि मांस के समान जल से सढ़ते भी नहीं हैं, क्योंकि उनकी उत्पत्ति जल से होती है। इस प्रकार शाकपत्रादि व मांस में भेद है, फिर भी मांस खाने वाले के दुराग्रहियों को इसका कदाचित् भी विवेक नहीं है ।
न शाकस्य पाके पलस्येव पूतिर्न च क्लेदभावो जलेनात्तसूतिः । इति स्पष्टभेदः पुनश्चापि खेदः दुरीहावतो जातुचिन्नास्ति वेदः । । 2511 - वीरो. सर्ग. 16 ।
कुछ मुनष्य मांस शाकपत्रादि में प्रत्यक्षों भेद देखते - जानते हुए भी मांस खाना नहीं छोड़ते । यही उनकी इन्द्रियाधीन प्रवृत्ति है और उसके वश होकर अज्ञान से कुतर्क करके मांस जैसी निंद्य वस्तु को उत्तम बताते हैं इसी भाव को इस श्लोक में प्रकट किया है
यदज्ञानतो ऽतर्क्य वस्तु
प्रशस्तिः ।
तदेवेन्द्रियाधीनवृत्तित्वमस्ति विपत्तिं पतङ्गादिवत्सम्प्रयाति स पश्चात्तपन् सर्ववित्तुल्यजातिः । । 26 ।।
- वीरो.सर्ग.16 ।
वीरोदय में भक्ष्याभक्ष्य पर आचार्यश्री ने अपने विचार संक्षेप में प्रस्तुत किये हैं, इन्हीं विचारों को स्पष्ट रूप देने के लिए उन्होंने "सचित्त - विवेचन एवं सचित्त- विचार" नामक ग्रन्थों की रचना की । एक अन्य श्लोक में भी ऐसे ही विचार प्रकट किये हैं कि संसार में मनुष्य को पूजनीय बनना है, तो मन को कोमल रखो, मद्य आदि मादक वस्तुओं का सेवन कभी ना करो, पलाश (ढाक - वृक्ष) की असफलता को देखकर पल (मांस) का भक्षण कभी न करो और रात्रि में भोजन करके कौन - भला आदमी निशाचर बनना चाहेगा ? कोई भी नहीं - कुर्यान्मनो यन्महनीयमञ्चे नमद्यश: संस्तवनं समञ्चेत् । दृष्ट्वा पलाशस्य किलाफलत्वं को नाम वाञ्छेच्च निशाचरत्वम् ।। 36 ।।
- वीरो.सर्ग. 18 ।