Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
View full book text
________________
वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
142
3. भोगोपभोगपरिमाणाणुव्रत
जो एक बार भोगने में आये उसे भोग और जो बार - बार भोगने में आये उसे उपभोग कहते हैं। एक बार भोगे जाने वलो पदार्थ भोजन, पुष्प, गन्ध आदि होते हैं। बार- बार भोगने वाले आभूषण वस्त्र आदि होते हैं। इनकी सीमा का निश्चित करना भोगापभोगपरिमाणाणुव्रत है।
वीरोदय महाकाव्य में गृहस्थ या श्रावक के धर्मानुसार करणीय कार्यों के विषय में कहा है कि गृहस्थ अवस्था में रहते हुए प्राणीमात्र पर मैत्रीभाव गुणीजनों पर प्रमोदभाव और दुःखी जीवों पर करूणाभाव रखना चाहिए। विरोधियों पर समताभाव रखते हुए प्रसन्नचित्त हो जीवन यापन करना चाहिए। सभी से स्नेहमय व्यवहार करना चाहिए । रूखा या आदर - रहित व्यवहार किसी के भी साथ नहीं करना चाहिए । समीक्ष्य नानाप्रकृतीन्मनुष्यान् कदर्थिभावः कमथाप्यनुस्यात् । सम्भावयन्नित्यनुकूलचेता नटायतामङ्गिषु यः प्रचेताः ।। 34 । । - वीरो.सर्ग.18 ।
गृहस्थ को अपने मन को सदा कोमल रखते हुए सभी के साथ भद्रता व नम्रता का व्यवहार करना चाहिए। मद्य, मांस, आदि भादक वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। सांसारिक कार्यों से समय बचा कर धर्म - कार्य भी करना चाहिये । जाति - कुल का मद नहीं करना चाहिये । स्वार्थी तथा धन का दास नहीं बनना चाहिये । किन्तु लोकोपकारी यश के भी कुछ काम करने चाहिए । पापों से बचने के लिये दूसरों के प्रति ईर्ष्या-द्वेष आदि नहीं करना चाहिए ।
वहावशिष्टं समयं न कार्य मनुष्यतामञ्च कुलन्तु नार्य ! | नार्थस्य दासो यशसश्च भूयाद् धृत्वा त्वधे नान्यजनेऽभ्यसूयाम् ।। 37 ।। - वीरो. सर्ग. 18 |
सांसारिक बाह्य वस्तुओं पर अधिकार पाने के लिए मन पर अपना अधिकार रखते हुए दूसरों के दोषों को नहीं कहना चाहिये । अहंभाव को छोड़ दें। इस छल छिद्रों से भरे संसार में कृतज्ञता प्रकट करें।