Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय का स्वरूप
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श्रद्धा से नमस्कार किया। मुनिश्री के आशीर्वादात्मक वचन सुनकर वह शान्त हो गया। उसने मुनिराज से मधु, मांस और शराब के सेवन का त्याग कर व्रत ग्रहण किये और जीवन पर्यन्त व्रतों का आदर पूर्वक पालन किया। श्वेताम्बर-ग्रन्थों में ग्रामचिन्तक कहा है तो दिगम्बर-ग्रन्थों में व्याध भीलों का मुखिया बताया है
मधुकारण्ये वने तस्या नाम्ना व्याधाधिपोऽभवत्।
गुणचन्द्र और हेमचन्द्र ने ग्रामचिन्तक को विशिष्ट आचार का पालक धर्मशास्त्र में श्रद्धालु, हेयो- पादेय का ज्ञाता, स्वभाव से गंभीर, । प्रकृति से सरल, विनीत, परोपकार-परायण आदि विशेषण देकर उसके सद्गुणों को प्रकट किया है, पर दिगम्बर परम्परा में पुरूरवा में दुर्गुणों की प्रधानता बतलाई है। इस प्रकार एक ही व्यक्ति होने पर भी पात्र की प्रकृति में बहुत अंतर है। पउमचरियं में आचार्य श्री विमलसूरि ने भी चौबीस तीर्थंकरों के पूर्वभवों का वर्णन किया है।
दिगम्बर-परम्परा में भिल्लराज अपने साथियों के साथ दस्यु-कर्म करता हुआ आखेट में संलग्न रहता था। एक दिन पति-पत्नी वन-विहार के लिये गये। पुरूरवा ने वृक्षों के झुरमुट में दो चमकती आंखे देखीं। उसने अनुमान लगाया कि वहाँ कोई जंगली जानवर स्थित है। अतएव धनुष-वाण चढ़ाया और सघन वृक्षों के बीच स्थित उस व्यक्ति का वध करना चाहा। कालिका ने बीच में रोककर कहा- 'नाथ। वहाँ शिकार नहीं वन देवता हैं। यदि जंगली जानवर होता तो उसकी इतनी शान्त चेष्टा नहीं हो सकती थी।' पुरूरवा आश्चर्य-चकित हो झुरमुट की ओर गया। वहाँ उसने एक मुनिराज को ध्यानस्थ देखा। पति-पत्नी ने भक्ति-विभोर होकर उनकी वन्दना की और फल-फूलों से अर्चना की। ध्यान (समाधि) टूटने पर मुनिराज ने पुरूरवा को निकट भव्य जानकर धर्मोपदेश दिया-'भिल्लराज'! क्यों मोह में पड़े हो ? निरीह प्राणियों की हिंसा करते हुए तुम्हें कष्ट नहीं होता?
भिल्लराज ने कहा- "महाराज ! मैं भिल्लों का सरदार हूँ। मेरे साथी जो लूट-पाट कर लाते हैं, उसमें मेरा हिस्सा रहता है। मैं हिंसक