Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
क्रोध, लोभ मोहादि सदा विचलित करते हैं। अतएव मुझे राज्य-वैभव और गृहस्थी के समस्त दायित्वों को त्यागकर आत्म-शोधन में प्रवृत्त होना चाहिये। अब इन सांसारिक प्रपंचों में फँसना मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।" ऐसा विचार कर नन्द ने समस्त अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह का त्याग कर निर्ग्रन्थ-दीक्षा ले ली। तदनन्तर नन्दमुनि ने श्रुतकेवली के पादमूल में स्थित होकर सोलहकारण भावनाओं का चिन्तन कर तीर्थकर प्रकृति का अर्जन कर लिया। “एदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवो तित्थयरणामागोदं कम्मं बंधदि' अच्युत स्वर्ग का इन्द्र
अन्त में समभावों से शरीर त्याग कर अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में वह बाईस सागर की आयु वाला अच्युतेन्द्र हुआ। उत्तरपुराण में भी ऐसा ही कथन है। भ. महावीर और उनका समग्र जीवनदर्शन
बाईस सागरों तक दिव्य सुखों को भोगकर वह अच्युतेन्द्र अन्तिम तीर्थंकर महावीर के नाम से इस वसुधा पर अवत्तीर्ण हुआ। भगवान महावीर का समग्र जीवन-दर्शन मानव-मात्र के लिये बड़ा प्रेरक है। उनके व्यक्तित्व को लोक-कल्याण की भावना ने सजाया था, संवारा था। वे अपनी आंतरिक शक्ति का स्फोटन कर प्रतिकूल कण्टकाकीर्ण मार्ग को पुष्पावर्कीर्ण बनाने के लिये सचेष्ट थे। उन्होंने स्वयं अपने लिये पथ का निर्माण किया। वे निर्झर थे। उन्होंने कठिन से कठिन तप कर, कामनाओं
और वासनाओं पर विजय पाकर लोक-कल्याण का ऐसा उज्ज्वल मार्ग प्रशस्त किया, जो प्राणी मात्र के लिये सहज गम्य और सुलभ था।15 कर्मयोगी
महावीर के व्यक्तित्व में कर्म-योग की साधना कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। वे स्वयं बुद्ध थे, जागरूक थे और बोध-प्राप्ति के लिये स्वयं प्रयत्नशील थे। वे कर्मठ थे और स्वयं उन्होंने पथ का निर्माण किया था। उनका जीवन भय, प्रलोभन, राग-द्वेष सभी से मुक्त था। वे कभी मृत्यु-छाया से आक्रान्त