Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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122 वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन कार्यों का संचालन करने लगा। सम्यक्त्व की निर्मलता के लिये देवपूजन, शास्त्र-स्वाध्याय एवं श्रावक के व्रतों का प्रमाद-रहित पालन करते हुए प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को सभी पाप कार्यों का त्याग कर प्रोषधव्रत पालन करने लगा।
एक दिन आकाश में बादलों का एक सुन्दर दृश्य देखकर उसका मानचित्र अंकित करने लगा। सहसा वायु के एक झोंके ने उस मेघपटल को क्षण भर में तितर-बितर कर दिया। हरिषेण सोचने लगा- “ऐसा सुन्दर दृश्य जब क्षण भर में विलीन हो सकता है, तब इस जीवन का क्या भरोसा ? मैंने अगणित वर्षों तक संसार के सुखों का उपभोग किया है, पर तृप्ति नहीं हुई। तृष्णा और आशा की जलती हुई भट्टी में सभी भौतिकतायें क्षण-भर में स्वाहा हो जाती हैं। भौतिक सभ्यता या भौतिक जीवन-मूल्यों को जब मानव-जीवन की तुला पर तौला जाता है, तो निराशा ही प्राप्त होती है। ये भौतिक-सुख त्याज्य हैं। अतः मानव-जीवन में आध्यात्मिकता को अपनाना और अपनी आध त्मिक-शक्ति के विकास के लिये पूर्ण प्रयत्न करना परमावश्यक है।"
सम्यग्दर्शन के प्रकाश ने उसकी अन्तरात्मा को आलोकित कर दिया। विवेकोदय के कारण कषाय और विकार धूमिल हो गये। परिग्रह की आसक्ति के त्याग ने उसकी आत्मा में संयम की ज्योति प्रज्ज्वलित कर दी। अतएव उसने मुनिराज से दिगम्बर-दीक्षा देने की प्रार्थना की। अन्त में समाधिमरण कर वह महाशुक्र नामक दशम स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ
और वहाँ से चयकर मनुष्य-पर्याय प्राप्त की। प्रियमित्र चक्रवर्ती
पुण्डरीकिणी नगरी में सुमित्र गम का राजा और सुव्रता नाम की महिषी थी। इन दोनों के वह महर्द्धिक देव प्रियमित्र नामक पुत्र हुआ। पिता ने पुत्र-जन्मोत्सव में अर्हन्त की पूजा कर चार प्रकार का दान दिया और गीत-नृत्यादि पूर्वक उत्सव सम्पन्न किया। युवा होने पर पिता ने उसका राज्याभिषेक किया। पूर्व पुण्य के प्रभाव से उसे चक्रवर्तित्व, अष्टसिद्धियाँ एवं नव निधियाँ प्राप्त हुई।