Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय का स्वरूप
सांध्यकाल में उसने श्रीश्रुतसागर नाम के सदगुरू से दीक्षा ली और आयु पूर्ण होने पर महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ। कनकोज्ज्वल पर्याय
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सौधर्म स्वर्ग से चयकर वह देव इस भूतल पर पच्चीसवें भव में कनकोज्ज्वल नामक राजा हुआ । उसका विवाह उसके मामा हर्ष की सर्वगुण सम्पन्न अत्यन्त सुन्दर कन्या कनकावती से हुआ। उसके मन में युवावस्थाजन्य वासनाओं का द्वन्द आरम्भ हुआ। कभी वह अपनी रूपवती भार्या के गुणों का स्मरण करता, तो कभी पुरूरवा और सिंह पर्याय में किये गये संकल्प उसे उद्वेलित करने लगते। एक दिन वह पत्नी कनकावती के साथ क्रीड़ा करता हुआ महामेरू पर्वत पर जिन - चैत्यों की पूजा के लिये गया। वहाँ पर ऋद्धिधारी अवधिज्ञानी मुनीश्वर को देख उनकी तीन परिक्रमायें की और 'नमोऽस्तु' कहकर वह उनके पाद - मूल में बैठ गया । कनोकोज्ज्वल का अज्ञान तिमिर नष्ट होने लगा और भीतर के प्रकाश से प्रकाशित हो उसने कहा "हे प्रभो! जन्म-मरण को दूर करने का उपाय बतलाइये ।'
मुनिराज बोले- "वत्स ! अहिंसा, सत्य, आचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, –5 महाव्रत, ईर्या,-भाषा, – एषणा, - आदाननिक्षेपण, - व्युत्सर्ग,– 5 समितियाँ, मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति, 3 गुप्तियाँ ये तेरह प्रकार के चरित्र को वीतरागी मुनि धारण करते हैं । यह साधना - मार्ग ही वीतरागता का मार्ग है ।" मुनिराज के उपदेश से दिगम्बर मुनि होकर वह संयम, तप और स्वाध् याय को सिद्धि में संलग्न हो गया। अन्त में समाधि - पूर्वक प्राण त्याग करके छब्बीसवें भव में लान्तव स्वर्ग का देव हुआ ।
हरिषेण पर्याय
कनकोज्ज्वल का जीव लान्तव स्वर्ग से च्युत हो कौशल देश में अयोध्या - नगरी के राजा वज्रसेन और उनकी पत्नी शीलवती के हरिषेण नाम का पुत्र हुआ। हरिषेण के युवा होने पर मातापिता और मंत्री परिषद् ने कई सुन्दर कन्याओं से उसका विवाह कर दिया। वज्रसेन ने कुमार का राज्याभिषेक किया। वह अपनी दिनचर्या नियत कर लौकिक और पारमार्थिक