Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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दीरोदय का स्वरूप
से भी भागा और एक पाषाण स्तम्भ के पीछे छिप गया । विश्वनन्दी ने उसे भी उखाड़ फेंका तो विश्वनन्दी प्राण बचाने वहाँ से भी भागा। उसे भागते देखकर विश्वनन्दी को करूणा के साथ-साथ विरक्ति-भाव जागृत हो गया और राजभवन में न जाकर वन में जाकर सम्भूत गुरू के पास जिन - दीक्षा धारण कर ली और उग्र तप करने लगा ।
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एक दिन विहार करते हुए गोचरी के लिये नगर में ज्यों ही प्रविष्ट हुए कि एक सद्यः प्रसूता गाय ने धक्का देकर उन विश्वनन्दी मुनिराज को गिरा दिया। उन्हें गिरता हुआ देखकर अचानक सामने आये विशाखनन्दी ने व्यंगपूर्वक कहा - "तुम्हारा वह पेड़ और खम्भे को उखाड़ फेंकने वाला पराक्रम अब कहाँ गया ?" उसका यह व्यंग - बाण मुनिराज के हृदय प्रविष्ट हो गया और उसने निदान किया कि यदि मेरी तपस्या का कुछ फल हो तो मैं इसे अगले भव में मारूँ ।" तपस्या के प्रभाव से मुनि का जीव अठारहवें भव में महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ। वह देव चयकर त्रिपृष्ठ नारायण हुआ और विशाखनन्दी का जीव अनेक कुयोनियों में परिभ्रमण कर अश्वग्रीव नाम का प्रथम प्रतिनारायण हुआ । पूर्व-भव के वैर भाव के संस्कार से एक स्त्री का निमित्त पाकर दोनों में घमासान युद्ध हुआ । त्रिपृष्ठ ने अश्वग्रीव को मारकर एकछत्र त्रिखण्ड राज्य - सुख भोगा। आयु के अन्त में मरकर बीसवें भव में त्रिपृष्ठ का जीव भी सातवें नगर का नारकी हुआ।
दिगम्बराचार्य गुणभद्र ने विश्वभूति के स्थान पर विश्वनन्दी नाम दिया है और विश्वनन्दी के स्थान पर विश्वभूति । उत्तरपुराण में बताया है कि- अपने लघुभ्राता को राज्य समर्पित कर विश्वभूति दीक्षा ले लेते हैं पर कथा की मौलिक घटना, उद्यान की पुष्प क्रीड़ा, भाई का अधिकार तथा किस प्रकार कपट- युद्ध का रूप तैयार किया गया आदि घटनाएँ दोनों ही परम्परा में एक जैसी हैं।
नरक में त्रिपृष्ठ के जीव ने अगणित काल तक नाना प्रकार के दुःखों को सहन किया। आयु पूर्ण होने पर यह जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में गंगा नदी के तट के समीपवर्ती वन- प्रदेश में सिंहगिरि पर्वत पर सिंह हुआ। वहाँ पर तीव्र पाप का अर्जन कर रत्नप्रभा नामक प्रथम नरक में