Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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126 वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन अद्वितीय विशेषता थी कि इस धरा पर कोई प्राणी दुःखी न रहे, सब सुखी हों और सारे संसार की रक्षा हो - विश्वस्य रक्षा प्रभवेदितीयद्वीरस्यसच्छासनमद्वितीयम् । समाश्रयन्तीह धरातलेऽसून्न कोऽपि भूयादसुखीति तेषु ।। 1।।
-वीरो.सर्ग.16। दिव्य तपस्वी
___ महावीर उग्र, घोर एवं दिव्य तपस्वी थे। उनकी तप-साधना विवेक की सीमा में समाहित थी। वे बाह्य तप के ही साधक नहीं, अन्तस् तप के भी साधक थे। उनकी तपस्या के प्रभाव से जीवन की समस्त अशुभ वृत्तियाँ शुभरूप परिणत होकर शुद्ध रूप को प्राप्त हुई थीं। लोककल्याण और लोकप्रियता
___ तीर्थंकर महावीर के कण-कण का निर्माण आत्मकल्याण और लोकहित के लिये हुआ था। लोककल्याण ही उनका इष्ट था और यही उनका लक्ष्य था। उनका संघर्ष बाह्य शत्रुओं से नहीं अपितु अन्तरंग काम, क्रोधादि वासनाओं से था। उन्होनें शाश्वत सत्य की प्राप्ति के लिये राजवैभव, विलास, आमोद-प्रमोद आदि का त्याग किया और जनकल्याण में संलग्न हुये। लोक-कल्याण के कारण ही उन्होंने अपूर्व लोकप्रियता प्राप्त की थी। मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी भी उनसे प्रेम करते थे। लोककल्याण की भावना के विषय में आचार्यश्री ने लिखा है - स्वार्थाच्च्युतिः स्वस्य विनाशनाय परार्थतश्चेदपसम्प्रदायः । स्वत्वं समालम्ब्य परोपकारान्मनुष्यताऽसौ परमार्थसारा।। 11||
वीरो-सर्ग.17। स्वावलम्बी
महावीर 'अपना कार्य स्वयं करो' के समर्थक थे। स्वयंकृत कर्म का शुभाशुभ फल व्यक्ति को अकेले ही भोगना पड़ता है। कर्मावरण को छिन्न करने के लिये किसी अन्य की सहायता अपेक्षित नहीं है। तीर्थकर