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120 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन नारकी हुआ और एक सागर तक भयंकर दुःख भोगता रहा। इसके पश्चात् जम्बूद्वीप में सिन्धुकूट की पूर्व दिशा में हिमवत पर्वत के शिखर पर देदीप्यमान बालों से सुशोभित सिंह हुआ। सिंह पर्याय
उत्तरपुराण के अनुसार वह भयंकर सिंह किसी समय हिरण को पकड़ कर खा रहा था। उसी समय एक चारण ऋषिधारी मुनिराज वहाँ आये और उन्होंने धर्म का उपदेश देते हुए बताया कि "त्रिपृष्ठ के भव में तुमने अत्यन्त विषयभोग भोगे। फलतः तूं सम्यक्त्व से भ्रष्ट होकर नरक गया। वहाँ से आकर सिंह हुआ है।" मुनिराज की वाणी सुनकर उसे जाति-स्मरण हुआ। उसे अत्यधिक पश्चाताप हुआ। मुनिराज ने पुरूरवा आदि पूर्व-भवों का उल्लेख किया और कहा कि अब इस भव से तूं दसवें भव में अन्तिम तीर्थंकर होगा। उसी समय काल आदि लब्धियों के मिल जाने से शीघ्र ही तत्त्वश्रद्धान किया और मन स्थिर कर श्रावक के व्रत ग्रहण किये। वीरोदय में इसका निरूपण करते हुए लिखा है
उपात्तजातिस्मृतिरित्यनेनाश्रुसिक्तयोगीन्द्रपदो निरेनाः। हिंसामहं प्रोज्झितवानथान्ते प्राणांश्च संन्यासितया वनान्ते ।। 23।।
-वीरो.सर्ग. 111 साधु के वचन सुनकर जाति-स्मरण को प्राप्त हो अपने आँसुओं से उन योगीन्द्र के चरणों को सींच कर हिंसा को छोड़ दिया और पाप-रहित होकर जीवन के अन्त में सन्यास-पूर्वक प्राणों को छोड़कर वह सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु नामक देव हुआ। वहाँ दो सागर की स्थिति भोगकर धातकी खण्डद्वीप के पूर्वविदेह क्षेत्र में कनकप्रभ नगर में राजा कनकपुंगव और कनकमाला रानी के कनकोज्ज्वल नामक पुत्र हुआ। एक बार वह पत्नी कनकवती के साथ मन्दरगिरि पर गया। वहाँ प्रियमित्र मुनिराज के दर्शन किए। अन्त में संयम धारण कर सातवें स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ सेपच्युत होकर जम्बूद्वीप के कौशल देश में साकेत नगरी के राजा वज्रसेन और रानी शीलवती के हरिषेण नामक पुत्र हआ। जीवन के