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वीरोदय का स्वरूप पुष्पमित्र नामक पुत्र हुआ। पुण्योदय के कारण पुष्पमित्र का पालन-पोषण समृद्ध रूप में हुआ। उसने संस्कारवश थोड़े ही दिनों में वेद-पुराण आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया। उसका विवाह समारोह-पूर्वक सम्पन्न हुआ। कुछ दिनों तक वह सांसारिक सुख भोगता रहा। पत्नी का स्वर्गवास हो जाने पर उसके मन में विरक्ति उत्पन्न हुई। मिथ्यात्व के उदय से 'आत्म-परिणिति' का त्याग कर वह पर-परिणित में प्रवृत्त हुआ। अपनी आत्मा की परम ज्योति को वह भूल गया। फलतः उसके समस्त कार्य अE यात्म-पोषक न होकर शरीर-पोषक ही होने लगे। कठोर साधाना करने पर भी शारीरिक कष्ट के अतिरिक्त उसे अन्य कोई उपलब्धि न हो सकी। कष्टसहिष्णुता के कारण मन्द कषाय होने से उसने देव-आयु का बंध किया और प्रथम स्वर्ग में देव हुआ। अज्ञानपूर्वक किये गये तप ने जीवन में न कोई गति उत्पन्न की और न किसी आलोक को ही प्रादुर्भूत होने दिया। अग्निसह ब्राह्मण
पुष्पमित्र का यह जीव स्वर्ग से च्युत होकर भरतक्षेत्र में श्वेतिक नाम के नगर में अग्निभूत ब्राह्मण और उनकी स्त्री गौतमी से अग्निसह नामक पुत्र हुआ। इस पर्याय में इसने धर्म, अर्थ और काम-इन तीनों पुरूषार्थों का यथोचित सेवन किया। स्वर्ग के दिव्य भोग-भोगकर वह पुनः एक बार अग्निमित्र नामक परिव्राजक हुआ और आंशिक साधना के फलस्वरूप उसे पुनः स्वर्ग-सुख प्राप्त हुए। इसमें सन्देह नहीं कि छोटा-सा अच्छा बीज भी मधुर फल उत्पन्न करता है। एक जन्म में की गई अहिंसा की आंशिक साधना भी अनेक जन्मों में फल देती है। अतएव वह स्वर्ग से च्युत हो, भारद्वाज नामक त्रिदण्डी साधु हुआ। मिथ्या श्रद्धा को वह दूर न कर सका। देवगति के भोगों में आशक्त हो गया। इस इन्द्रियासक्ति ने उसे अनेक कुयोनियों में परिभ्रमण कराया। पूर्व संचित शुभ-कार्यों से उसे मनुष्य जन्म भी मिला, परन्तु अज्ञान-पूर्वक तप किया और आत्मानुभव से भी दूर रहा।