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आचार्यश्री ज्ञानसागर और उनके महाकाव्यों की समीक्षा
इस प्रकार ऋषभावतार की बढ़ाई मार्कण्डेय पुराण/ कूर्मपुराण/ अग्निपुराण/ वायुमहापुराण/विष्णुपुराण/ स्कन्धपुराण/ शिवपुराण आदि में लिखी हुई है। जिसके अनुयायी जैन लोग होते हैं और उन्हें ही आदर्श मानकर महापुरूष परमहंस अवस्था पा जाते हैं। दयोदय काव्य में वर्णित पौराणिक प्रमाण उसकी प्राचीनता के द्योतक हैं। दयोदय चम्पू की कथा
उज्जैन में एक मृगसेन धीवर रहता था। वह रोज अपना जाल लेकर मछलियाँ पकड़ने जाता था। एक दिन मार्ग में अवन्ती पार्श्वनाथ के मन्दिर पर उसने लोगों की भीड़ देखी। कौतूहल वश वह भी वहाँ जा पहुँचा। वहाँ उसने देखा कि एक दिगम्बर मुनिराज अहिंसा-धर्म का उपेदश दे रहे हैं और अनेक लोग अहिंसाव्रत को स्वीकार कर हिंसा का त्याग कर रहे हैं। उसने भी सोचा कि हिंसा करना पाप है, पर मेरी तो आजीविका ही हिंसामय है। यदि मैं हिंसा का त्याग कर दूँ तो मेरी और मेरे घरवालों की गुजर कैसे होगी ? मन में बहुत देर तक इसी उधेड़-बुन में लगा रहा कि मैं क्या करूँ और कौन-सा व्रत लूँ ? अन्त में साहस करके उसने मुनिराज को प्रणाम कर कहा- कि "भगवन् ! मुझ पापी को भी कोई व्रत देकर अनुगृहीत करें"। मुनिराज ने उसकी सर्व परिस्थिति का विचार कर उससे कहा- “यद्यपि तेरी जीविका ही पापमय है, फिर भी तू इतना तो त्याग कर ही सकता है कि तेरे जाल में सबसे पहले जो जीव आवे, उसे नहीं मारकर जीवित ही जल में छोड़ दे।" उसने इसे स्वीकार कर लिया।
व्रत लेकर धीवर क्षिप्रा नदी पर पहुंचा और जाल को पानी में डाला। पहली ही बार में एक बड़ी मछली जाल में आई। उसने मुनिराज से ग्रहण किये हुए व्रत की याद करके उसे पकड़ना उचित न समझा। "वही पुनः जाल में आकर न मारी जाये"- इस विचार से कपड़े की एक धज्जी उसके गले में बाँधकर उसे पानी में छोड़ दिया। इसके पश्चात् उसने चार बार और जाल पानी में फेंका, परन्तु हर बार वही मछली जाल