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वीरोदय का स्वरूप सत्ययुगादि वर्णन
___ भव-दुःखों से पीड़ित पुरूषों को कष्ट से बचाने के लिए भगवान महावीर ने अनेक उपाय बताये हैं। उन्होंने संसार की गति का नियन्ता ईश्वर को न मानकर समय को माना है। समय ही बलवती शक्ति है, जो राजा को रंक और रंक को राजा बना देता है। समय के प्रभाव से जब सतयुग त्रेतायुग में परिणत हुआ, तो मानव को जीवनयापन की वे सुविधायें वैसी प्राप्त नहीं हई जैसी सतयुग में प्राप्त थीं। फलस्वरूप समाज में अव्यवस्था फैली। इसे नियन्त्रित करने के लिये धरा पर चौदह कुलकरों ने जन्म लिया जिनमें नाभिराय अन्तिम कुलकर थे। इनकी पत्नी का नाम मरूदेवी था। इन्हीं के पुत्र आदि तीर्थंकर भ. ऋषभदेव थे।
भगवान ऋषभदेव ने लोगों का कष्ट दूर कर उपयुक्त जीवनयापन का उपदेश दिया। गृहस्थ-धर्म का पालन करने के पश्चात् सन्यास ग्रहण कर लोगों को धर्म के प्रति प्रेरित किया। ऋषभदेव के पश्चात् द्वापर युग में अजितनाथ आदि तेईस तीर्थकर और भी हुए, जिन्होंने ऋषभदेव के सिद्धान्तों का ही प्रचार-प्रसार किया। वस्तुतत्त्व की नित्यता
जैनधर्म में बताया है कि कोई भी वस्तु सर्वथा नवीन उत्पन्न नहीं होती। जो वस्तु विद्यमान है, वह कभी नष्ट नहीं होती है, किन्तु निमित्त-नैमित्तिक भाव से नित्य नवीन रूप धारण करती हुई परिवर्तित होती रहती है- यही वस्तु का वस्तुत्व-धर्म है। इनकी उत्पत्ति और नाश का कारण ईश्वर नहीं है। सभी पदार्थ स्वतः परिणमते हैं। न सर्वथा नूत्रमुदेति जातु यदस्ति नश्यत्तदथो न भातु। निमित्त-नैमित्तिक-भावतस्तु रूपान्तरं सन्दधदस्ति वस्तु।। 39 ।।
-वीरो. सर्ग.19। सर्वज्ञता की सिद्धि
आत्मा दर्शन-ज्ञान-स्वभावी है। देखना और जानना उसका स्वभाव है। संसारावस्था में ज्ञान कर्मावृत्त रहता है। जब आत्मा से