Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय का स्वरूप
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हैं और वेद-विधान से की गई हिंसा हिंसा नहीं है। यथा
यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा। यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद् यज्ञे वधोऽवधः।। यज्ञार्थं ब्रह्माणैर्वध्याः प्रशस्ता मृग-पक्षिणः । या वेदविहिता हिंसा नियताऽस्मिश्चराचरे।। अहिंसामेव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्बभौ।।
- मनुस्मृति 5/22.39-441 धर्म के नाम पर हिंसा का ताण्डव नृत्य अपनी चरम-सीमा पर पहुँच गया था, जिसके फलस्वरूप नरमेध यज्ञ भी होने लगे थे। यहाँ तक कि रूप-यौवन सम्पन्न मनुष्यों तक को भी यज्ञाग्नि की आहुति बना दिया जाता था। 'गीता-रहस्य' जैसे ग्रन्थ के लेखक लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने एक भाषण में कहा था कि 'पूर्वकाल में यज्ञ' के लिए असंख्य पशुओं की हिंसा होती थी, इसके प्रमाण मेघदूत आदि अनेक ग्रन्थों में मिलते हैं। भ. महावीर ने इस हिंसा को दूर करने के लिये अथक प्रयत्न किया और उसी का यह सुफल है कि भारतवर्ष से याज्ञिकी हिंसा सदा के लिये बन्द हो गई। स्वयं लोकमान्य तिलक ने स्वीकार किया है कि इस घोर हिंसा का ब्राह्मण-धर्म से विदाई ले जाने का श्रेय जैनधर्म को है। सामाजिक स्थिति
भ. महावीर से पूर्व सारे भारत की सामाजिक स्थिति अत्यन्त दयनीय हो रही थी। ब्राह्मण सारी समाज में सर्वश्रेष्ठ समझा जाता था। इसके लिये ब्राह्मण-ग्रन्थों में कहा गया था कि दुःशील ब्राह्मण भी पूज्य है और जितेन्द्रिय शूद्र भी पूज्य नहीं है। ब्राह्मण विद्वान हो या मूर्ख वह महान देवता है। 'दुःशीलोऽपि द्विजः पूज्यो न शूद्रो विजितेन्द्रियः।" 'अविद्वांश्चैव विद्वांश्च ब्राह्मणो दैवतं महत् ।।
तथा श्रोत्रिय ब्राह्मण के लिये यहाँ तक विधान किया गया है कि श्राद्ध के समय महान बैल को भी मार कर उसका मांस श्रोत्रिय ब्राह्मण को