Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय का स्वरूप
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___उत्तरमध्यकाल (11-12वीं शताब्दी) आते-आते समाज अनेकों जातियों और उपजातियों में विभाजित होने लगा था। समाज में तन्त्र-मन्त्र, टोना-टोटका, शकुन मुहूर्त आदि अन्धविश्वास अशिक्षित और शिक्षित दोनों में घर कर गये थे। धार्मिक तथा सामाजिक क्षेत्र में उत्तरोत्तर भेद-भाव बढ़ता जा रहा था। जातियों के उपजातियों में विभक्त होने से उनमें खान-पान, रोटी-बेटी का सम्बन्ध बन्द हो गया था। क्षत्रिय और वैश्व वर्ग में भी इन नये परिवर्तनों का प्रभाव पड़ने लगा था। क्षत्रिय वर्ग के राजवंशों से शासन कार्य छिन रहा था। सामान्य क्षत्रिय व्यापार कर वैश्यवृत्ति धारण कर रहे थे और धार्मिक दृष्टि से वे किसी एक धर्म के मानने वाले न थे तथा पश्चिम और दक्षिण भारत में बहुसंख्यक जन जैनधर्मावलम्बी भी हो गये थे।
इस काल में वैश्य-वर्ग में भी नूतन रक्त-संचार हुआ। छठवीं शताब्दी तक लगभग वे प्रायः जैन और बौद्ध-धर्म के प्रभाव के कारण कृषिकर्म छोड़ चुके थे। वैश्य लोग अनेक जातियों और उपजातियों में बट गये थे। जैनधर्म अधिकाँशतः व्यापारी वर्ग के हाथों में था। मुस्लिम काल में भी जैन-गृहस्थों के कारण जैनाचार्यों की प्रतिष्ठा कायम थी। इस काल में जैन गृहस्थों ने अनेक ग्रन्थों की रचना भी की। अपभ्रंश महाकाव्य 'पउमचरिउ' के रचयिता स्वयंम्भ, तिलकमंजरी के प्रणेता धनपाल, पं. आशाधर, अर्हदास, कवि मण्डन आदि अनेक जैन-गृहस्थ ही थे।
____ मनुस्मृति में बताया है – क्षत्रिय, वैश्य और ब्राह्मण योग्य अवस्था प्राप्त करने पर भी असंस्कृत हैं, क्योंकि वे व्रात्य हैं और वे आर्यों द्वारा गर्हणीय हैं। ब्राह्मण-संतति को उपनयन आदि व्रतों से रहित होने के कारण व्रात्य शब्द से निर्दिष्ट किया जाता है।
द्विजातयः सवर्णासु, जनयन्त्यव्रतांस्तु तान्। तान् सावित्री-परिभ्रष्टान् ब्राह्मानिति विनिर्दिशेत् ।।
-मनुस्मृति 10/201 व्रात्यकाण्ड की भूमिका में आचार्य सायण ने लिखा है- “उपनयन आदि से हीन मानव "व्रात्य" कहलाता हैं ऐसे मानव को वैदिक कृत्यों के