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वीरोदय का स्वरूप
99. तप और आत्माराधना द्वारा आत्म-तत्त्व को जानकर संसार को पाप-पंक से दूर करने के लिये वैशाख मास की शुक्ला दशमी तिथि को उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। वे चतुर्मुखी हो गये। उनके शरीर का प्रतिबिम्ब पड़ना बन्द हो गया। उनमें सभी विद्याओं का प्रवेश हो गया। इसी हर्षमय वातावरण में इन्द्र ने समवशरण (सभा-मण्डप) का निर्माण कराया। इसी सभा-मण्डप में भ. महावीर ने मुक्तिमार्ग का उपदेश दिया। समवशरण की रचना
समवशरण के मध्य गन्धकुटी में सिंहासन पर विराजमान भ. महावीर का मुखमण्डल अत्यन्त तेजस्वी लग रहा था। शिरपर छत्रत्रय सुशोभित थे। देवगण दुन्दभि बजा रहे थे तब उन्होंने अपनी पवित्र वाणी से आषाढ़ मास की गुरू-पूर्णिमा के दिन प्रथमबार सत्य, अहिंसा, और त्याग का उपदेश दिया। भगवान महावीर के गणधर
भगवान महावीर के ग्यारह गणधर हुए - गौतम इन्द्रभूति, अग्निभूति, आर्यव्यक्त, सुधर्म, मण्डिक, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचल, मेतार्य
और प्रयास। इन्होंने भगवान के सन्देश का प्रसार किया। ये अपनी शिष्य-परम्परा के साथ भगवान महावीर के पास पहुंचे थे। भगवान ने सबको उपदेश दिया एवं गौतम इन्द्रभूति के मन में उठ रहे सन्देहों का शमन किया । ब्राह्मण के गुणों का ज्ञान कराया और आत्मतत्त्व का उपदेश दिया, जिससे उनका सारा कल्मष धुल गया और कल्याण हुआ। गणधरों की आध्यात्मिक उन्नति को जानकर अन्य लोग भी भ. महावीर की शरण में आने लगे थे। पारस्परिक विरोध को भूलकर वे उनका उपदेश सुनते थे । तथा आत्मध्यान में लीन हो जाते थे। भ. महावीर के उपदेशों का प्रभाव
समवशरण में उपस्थित सभी ने भ. महावीर के उपदेशों को अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार ग्रहण किया, किन्तु गौतम इन्द्रभूति ने उनकी दिव्यवाणी को विशेष रूप से समझा और विश्वकल्याणार्थ उसे अनुदित कर बारह अंगों में ग्रथित किया । भगवान का शिष्यत्व राजवर्ग के :