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आचार्यश्री ज्ञानसागर और उनके महाकाव्यों की समीक्षा किन्तु हिन्दी के जानने वाले भी जिस दृष्टिकोण से इस ग्रन्थ का आस्वादन करेंगे, उन्हें उस धारा में अनुपम आनन्द की प्राप्ति होगी।
अहिंसाव्रत की उपादेयता के विषय में कार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है कि जो श्रावक त्रस जीव, दोइन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय का घात मन, वचन, काय से स्वयं नहीं करे, दूसरे से नहीं करावे और अन्य को करते हुये अच्छा नहीं माने उसके अहिंसाणुव्रत होता है। मूलाचार ग्रन्थ में वट्टकेराचार्य ने अहिंसाव्रत के सम्बन्ध में निम्न उदाहरण प्रस्तुत किया है कि -
कायेंदियगुणमग्गणकुलाउजोणीसु सव्वजीवाणं। णाऊण य थाणादिसु हिंसादि विवज्जवणमहिंसा।।
-मूला. गा. 51 अर्थात् काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, आयु और योनि इनमें सभी जीवों को जान करके कार्योत्सर्ग आदि में हिंसा आदि का त्याग करना अहिंसामहाव्रत है। सूक्तियाँ - धर्मेऽथात्मविकासे नैकस्यैवास्ति नियतमधिकारः, योऽनुष्ठातुं यतते सम्भाल्यतमस्तु स उदारः।। – (वीरो. सर्ग 17 श्लोक 40) धर्म धारण करने में या आत्म विकास करने में किसी एक व्यक्ति या जाति का अधिकार नहीं है। जो कोई धर्म के अनुष्ठान के लिये प्रयत्न करता है। वह उदार मनुष्य संसार में सबका आदरणीय बन जाता है। उपद्रुतोऽप्येषतरू रसालं फलं श्रणत्यंगभृते त्रिकालम् – (वीरो सर्ग 1 श्लोक 12) लोगों द्वारा पत्थर मारकर उपद्रव को प्राप्त किया गया भी वृक्ष भी उन्हें सदा सरस फल प्रदान करता है। सन्दर्भ - 1. मैत्रेयोपनिषदस्तृतीयाध्यायस्य कारिका - 19।