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आचार्यश्री ज्ञानसागर और उनके महाकाव्यों की समीक्षा
15. होने का शाप देने लगा। उसके विलाप को रानी ने भी सुना तो उसने राजा से कहा कि यह पुरूष सत्यघोष की निन्दा करता है, उसका कारण पागलपन नहीं, अपितु सत्यघोष से सम्बन्धित कोई रहस्य है। अतः रहस्योद्घाटन होना चाहिए।' .
राजा के जाने के बाद, अनायास ही उपस्थित हुये सत्यघोष को रानी ने आदर सहित शतरंज खेलने के लिये आमन्त्रित किया। अपनी बातों में उसे भुलावे में डालकर रानी ने उससे यज्ञोपवीत, छुरी और मुद्रिका तीनों वस्तुएँ जीत ली। फिर दासी को तीनों वस्तुएँ सौंप कर आदेश दिया कि मन्त्री के घर उसकी पत्नी को ये तीनों वस्तुएँ देकर भद्रमित्र की रत्नों की पोटली ले आओ। दासी ने मन्त्री के घर जाकर वे तीनों वस्तुएँ उसकी पत्नी को सौंपकर भद्रमित्र की रत्नों की पोटली प्राप्त कर ली और लाकर रानी को सौंप दी। (तृतीय सर्ग)
रानी ने वे रत्न राजा को सौंप कर भद्रमित्र की परीक्षा के लिये उन रत्नों में और भी रत्न मिला दिये। किन्तु भद्रमित्र ने रत्नसमूह में से अपने सात रत्नों को छाँटकर उठा लिया। राजा ने भद्रमित्र का सत्याचरण देखकर उसे राजश्रेष्ठी बना दिया और दुष्ट सत्यघोष को अपदस्थ कर कठोर दण्ड दिया। राजसेठ बन जाने के बाद भद्रमित्र ने वरधर्म नामक मुनिराज के दर्शन किए। फलस्वरूप वह अपनी सम्पत्ति का अतिशय दान करने लगा। उसके दानशील स्वभाव से रूष्ट होकर उसकी माता ने प्राण त्याग दिये। वह मरकर व्याघ्री हुई। एक दिन उस व्याघ्री ने भद्रमित्र को खा लिया। उसने रानी रामदत्ता और राजा सिंहसेन के पुत्र के रूप में जन्म लिया उसका नाम सिंहचन्द्र रखा गया। बाद में सिंहचन्द्र का एक छोटा भाई पूर्ण-चन्द्र भी हुआ। (चतुर्थ सर्ग)
आर्यिका रामदत्ता के उपदेश से पूर्णचन्द्र अर्हन्तं देव की पूजन करते हुये गृहस्थ-धर्म को पालने लगा। अपराधियों को दण्ड देने और निरपराधों को अभय देने के विषय में भी वह सावधान रहने लगा। रामदत्ता आर्यिका ने अन्त में योग-समाधि द्वारा अपने शरीर को त्यागा। फलस्वरूप वह सोलह सागर की आयु वाले भास्कर देव के रूप में स्वर्गिक सुख भोगने