Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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आचार्यश्री ज्ञानसागर और उनके महाकाव्यों की समीक्षा के पास पहुंचे। पर सम्पूर्ण सन्दर्भ जानने के बाद राजा ने भी वह कमल जिन भगवान की सेवा में समर्पित करना चाहा और सबको लेकर वे जिनमन्दिर पहुंचे। वहाँ पहुँचकर राजा ने वह कमल-पुष्प ग्वाल-बाल के हाथों से ही भगवान जिनेन्द्र की सेवा में समर्पित करा दिया। इस घटना से प्रभावित होकर सेठ वृषभदास ने उस ग्वाल-बाल को अपने घर का सेवक बना लिया। एक दिन वह गोपबालक जगल में सूखी लकड़ियाँ काटकर घर लौट रहा था। सर्दी का समय था। हिमपात हो रहा था। मार्ग में उसने एक वृक्ष के नीचे समाधिस्थ साधु के दर्शन किये। उनकी दशा को देखकर उसने सोचा कि निश्चय ही इन्हें शीत सता रहा होगा। अतः उसने सामने आग जला दी स्वयं भी बैठ गया। वह सारी रात आग जलाता हुआ वहीं बैठा रहा। प्रातःकाल होने पर साधु की समाधि भंग हुई। उन्होनें बालक को देखा और प्रसन्न होकर 'नमोऽर्हते' मंत्र का उपदेश दिया तथा यह भी आदेश दिया कि वह प्रत्येक कार्य के पूर्व इस मंत्र का स्मरण कर लिया करे। बालक साधु को प्रणाम कर घर लौट आया और उनकी आज्ञानुसार जीवनयापन करने लगा।
एक दिन जंगल में भैसों के चराते समय एक भैंस सरोवर में घुस गई। उसे निकालने के लिये वह मंत्र-स्मरण पूर्वक सरोवर में कूदा। वहाँ लकड़ी की नोक की चोट से उसकी मृत्यु हो गई पर उस महामंत्र के प्रभाव से वही बालक सेठ वृषभदास के घर तुम्हारे रूप में उत्पन्न हुआ है। वह भीलिनी भी मरकर भैंस हुई। तत्पश्चात् धोबिन बनी। वह धोबिन आर्यिकाओं के संसर्ग से हिंसा एवं सर्वपरिग्रह का त्याग करके क्षुल्लिका बन गई। अपने निर्मल स्वभाव, सत्यवादिता आदि गुणों के कारण वह पुनः तुम्हारी पत्नी हुई है। अतः इस समय तुम दोनों धर्मानुकूल आचरण करते हुये सुखपूर्वक अपना जीवन बिताओ।" यह सुनकर सुदर्शन और मनोरमा दोनों ही मुनिराज द्वारा बताये गये नियमों का पालन करते हुये सुखपूर्वक जीवन-यापन करने लगे। (चतुर्थ सर्ग)
एक दिन जिनदेव की पूजन कर लौटते समय तेजस्वी सुदर्शन को देखकर कपिला ब्राह्मणी उस पर मोहित हो गई। छल से उसे बुलाने के