Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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58 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन विरोधाभास आदि अलंकार इसे विशेष रूप से उज्ज्वल और विभूषित करते
काव्य-नायक सुदर्शन के शीलव्रत की महिमा के कारण शूली भी सिंहासन में बदल जाती है। यह महाकाव्य रूढ़िक परम्पराओं से हटकर दार्शनिक साहित्य विधा से ओत-प्रोत होकर भक्ति-संगीत की अलौकिक छटा प्रस्तुत करता है। राग की आग में बैठे हुये काव्यनायक को वीतरागता के आनन्द का अनुभव कराया है। यह काव्य जहाँ साहित्यिक सौन्दर्य के कारण साहित्यकारों को और दार्शनिकता के कारण दार्शनिकों को अपनी बुद्धि को परिश्रम करने की प्रेरणा देता है, वहीं पर यह गृहस्थ एवं साधु की आचार-संहिता पर भी प्रकाश डालता है। यह 9 सों में विभक्त है और इसमें कुल 542 पद्य हैं। इसमें चरित-काव्य के लक्षण पाये जाते हैं। कवि का उद्देश्य कवित्व-शक्ति का प्रदर्शन न होकर मुनि-सुदर्शन के श्रेष्ठ और निष्कलुष चरित का सरल भाषा में प्रतिपादन करना है। पूरा ग्रन्थ शान्तरस की धारा में प्रवाहित हुआ है। बीच-बीच में मनोहारी अर्थ-गाम्भीर्य को लिये हुये सुभाषितों का प्रयोग भी हुआ है। इसकी कथावस्तु इस प्रकार है - कथावस्तु
भारतवर्ष में अङ्ग नामक एक देश प्राचीन समय में अपने अतुलित वैभव के कारण लोक-विश्रुत था। इसी देश की चम्पापुरी नगरी में ढाई हजार वर्ष पूर्व भ. महावीर के समय तेजस्वी, परम प्रतापी, प्रजावत्सल धात्रीवाहन नामक राजा का शासन था। उसकी अत्यन्त रूपवती किन्तु कुटिल स्वभाववाली अभयमती नाम की रानी थी। (प्रथम सर्ग) चम्पापुरी में विचारशील, दानी, निरभिमानी, सम्पत्तिशाली, कलावान, निर्दोष एवं वैश्यों में सर्वश्रेष्ठ वृषभदास नामक एक सेठ भी रहता था। उसकी पत्नी जिनमति, सुन्दरी, सुकोमल, अतिथि-सत्कार- परायणा, सदाचारिणी और मृदुभाषिणी थी। एक समय जिनमति ने रात्रि के अन्तिम प्रहार में महापुरूषोत्पत्ति-सूचक स्वप्न देखे। प्रातःकाल उसने स्वप्नों का अभिप्राय जानने के लिये पति के पास जाकर निवेदन किया कि आज प्रथम स्वप्न में मैनें सुमेरू पर्वत, द्वितीय