Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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व्यवस्था की जा सकती है। छोटी-सी बातोंको लेकर पारिवारिक कलह करना उचित नहीं है। परिवारमें तभी शान्ति और एकता विद्यमान रहती है, जब परस्परमें उदारतापूर्ण प्रेमका वार किया जाये ! मतगत ना उद्यानपरसे अपना अधिकार हटा लो।"
विश्वनन्दीके इस कथनको सुनकर विशाखनन्दीने उत्तर दिया-"यह उपवन मुझे मेरे पिताने दिया है और अब मैं इसका स्वामी हूँ । अतएव मैं इसे यों ही वापस नहीं कर सकता । यदि सामर्थ्य है, तो तुम लड़कर इसे ले लो।" _ विश्वनन्दी क्रोधाविष्ट हो विशाखनन्दीको मारनेके लिये दौड़ा। विशाखनंदी भयसे आतंकित हो एक उन्नत वृक्षके ऊपर चढ़ गया । कुमार विश्वनन्दीने उस उन्नत कपित्थ वृक्षको जड़से उखाड़कर फेंक दिया और उसे मारनेके लिये उद्यत हुआ। यह देख विशाखनन्दी वहाँसे भागा और एक पाषाण स्तम्भके पीछे छिपकर बेठ गया। शक्तिशाली विश्वनन्दीने अपने मुष्टिप्रहारसे उस पत्थरके स्तम्भको चूर-चूर कर डाला । अब विशाखनन्दीको कहीं छिपकर प्राण बचानेका स्थान नहीं था । अत: वह पलायनवादी नीति स्वीकार कर वहाँसे भागा । जब कुमार विश्वनन्दीने अपने अपकार करनेवालेको इसप्रकार भागते हुए देखा तो उसका सौहार्द और करुणा जागृत हो उठी । उसने कुमारको रोकते हुए कहा"भय मत करो। तुम मेरे भाई ही हो । मैं अब तुम्हारे ऊपर शस्त्र प्रहार नहीं करूंगा। तुम्हारे प्रति मेरे हृदयमें ममता है । मैं तुम्हें अपना उपवन देनेको तैयार हूं । अब जब तुम आत्मसमर्पण करनेको प्रस्तुत हो, तो मुझे उपवन देने में किसी भी प्रकारको आपत्ति नहीं है। यदि यह कार्य पहले ही किया गया होता, तो न तुम्हें कष्ट होता और न मुझे ही क्लेशका अनुभव करना पड़ता।" __ इसप्रकार विशाखनन्दीको सांत्वना देकर विश्वनन्दीने उसे वह वाटिका सौंप दी । अब विश्वनन्दो संसारको स्वार्थपरताके सम्बन्धमें सोचने लगा-“मैंने इसससारकी स्वार्थपरता देख ली । चाचाजीने मुझे कामरूपनरेशको वश करनेके लिये भेजा और मेरी अनुपस्थिति में मेरी वाटिकापर विशाखनन्दीका आधिपत्य करा दिया। विशाखनन्दीमें न शारीरिक बल ही है और न आत्मिक बल । उसका मनोबल इतना कमजोर है कि वह मेरा तो क्या किसी अच्छे सेनिकका भी सामना नहीं कर सकता। यह संसार स्वार्थीका अखाड़ा है। इसकी अनित्यता और अनिश्चितता सभीको कष्ट देती है। कषाय और असंयमके कारण अनेक गतियों में परिभ्रमण करना पड़ता है। यह मनुष्यजीवन आत्मोत्थानके लिये प्राप्त हुआ है। यदि इस जीवनको सार्थक न किया गया, तो फिर पश्चात्ताप ही करना पड़ेगा। अतएव इन्द्रिय और मनका नियन्त्रणकर आत्मकल्याणमें
तीर्थकर महाबीर और उनकी देशना : ३५