Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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है और नत्र समास के दो अर्थ होते हैं: - पर्युदास और प्रसज्य पर्युदासपक्ष निषेधसूचक नियम होनेपर भी विधिके रूपमें उपस्थित होता है। यहाँ अभूतार्थमें 'अब्राह्मण' और 'अनुदरा कन्या के समान पर्युदास पक्ष है । अनुदरा कन्या उदरसे होन नहीं, अपितु लघु उदरवाली है, इसी प्रकार अभूतार्थ सर्वथा अभूतार्थं नहीं अपितु किञ्चित् अभूतार्थं है। जब निश्चयनय शुद्धात्माको मुख्यतासे विषय करता है, उस समय व्यवहारनय गोणरूपमें उपस्थित रहता है । यदि एक नयका व्यवहार करते समय दूसरी नयदृष्टिका सर्वधा परित्याग कर दिया जाय, तो नयज्ञान सुनयकोटिमें नहीं आ सकता है ।
निश्चयनयको प्रकृति अन्तर्मुखी अधिक और व्यवहारनयकी प्रकृति बहिमुखी होती है । निश्वयनय द्वारा बाहरसे भीतर की ओर देखना आरम्भ करता है अर्थात् शरीरसे आत्माको ओर उन्मुख होता है और व्यवहारनय द्वारा शरीरको ओर ही दृष्टि रहती है ।
वस्तुके एक अभिन्न और स्वाश्रित - परनिरपेक्ष परिणमनको जाननेवाला निश्चयनय है और अनेकरूप तथा पराश्रित - पर- सापेक्ष परिणमनको अवगत करनेवाला व्यवहारनय है । वस्तुतः गुणपर्यायोंसे अभिन्न आत्माको परिणसिके कथनको निश्चयtयका विषय माना जाता है और कर्मनिमित्तसे होनेवाली आत्माको परिणतिको व्यवहारनयका विषय कहा जाता है । निश्चयनय स्वभावको विषय करता है, विभावको नहीं। जो 'स्व' में 'स्व' के निमित्तसे होता है वह स्वभाव है, जैसे जीवके ज्ञानादि । और जो स्वमें परके निमित्तसे होते हैं वे विभाव हैं, जैसे जोव में क्रोधादि । निश्चयनय आत्मामें क्रोध मान-माया-लोभ आदि विकारोंको स्वीकृत नहीं करता। वे पुद्गलद्रव्य के निमित्तसे होते हैं, अतः पौद्गलिक कहे जाते हैं ।
परके निमित्तसे होनेवाले काम-क्रोधादि विकार भी कथचित् आत्मा के हैं अतः अशुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा इन विकारोंको भी आत्माकी विभावपरिणतिके रूपमें स्वीकार किया जाता है। निश्चय और व्यवहारनय में भूतार्थ और अभूतार्थकी कल्पना भी अपेक्षाकृत है। अर्थात् व्यवहारनय निश्चयनयकी अपेक्षा अभूतार्थ हैं, स्वरूप और स्वप्रयोजनकी अपेक्षासे नहीं । यदि व्यवहारको सर्वथा अभूतार्थ माना जाय तो वस्तुव्यवस्था घटित नहीं हो सकेगी ।
चिन्तकका अभिमत है कि जिस प्रकार म्लेच्छों को समझानेके लिये म्लेच्छ भाषाका प्रयोग करना उचित होता है, उसी प्रकार व्यवहारी जीवोंको परमार्थका प्रतिपादक होनेसे तीर्थको प्रवृत्तिके निमित्त अपरमार्थ होनेपर भी व्यवहारनयका अभूतार्थ बतलाना न्यायसंगत है । अर्थात् व्यवहारतय सर्वथा असत्य ४६४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
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