Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 572
________________ ६-१० पांच समितियां-मुनि दिनमें सूर्यालोकके रहने पर चार हाथ आगे भूमि देखकर गमन करते हैं। हित, मिस और प्रिय वचन बोलते हैं । श्रद्धा और भक्तिपूर्वक दिये गये निर्दोष आहारको एक बार ग्रहण करते हैं। पिच्छिकमण्डलु आदिको सावधानीपूर्वक रखते और उठाते हैं । जीव-जन्तु रहित भूमि पर मल-मूत्रका त्याग करते हैं। प्रमादत्यागकी हेतुभूत ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण और व्युत्सर्ग ये पांच समितियां हैं। ११-१५ पंचेन्द्रियनिग्रह-जो विषय इन्द्रियों को लुभावने लगते हैं, उनसे मुनि राग नहीं करते और जो विषय इन्द्रियोंको बुरे लगते हैं, उनसे द्वेष नहीं करते । १६-२१ षडावश्यक-सामायिक, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन षडावश्यकोंका मुनिपालन करते हैं । सामायिकके साथ तीर्थकरोंकी स्तुति, उन्हें नमस्कार, प्रमादसे लगे हुए दोषोंका शोधन, भविष्यमें लग सकनेवाले दोषोंसे बचनेके लिए अयोग्य वस्तुओंका मन-वचन-कायसे त्याग, तप व पथदा माई रिहा तिने भागोमाग करना अपेक्षित है । खड़े होकर दोनों भजाओंको नोचेकी ओर लटकाकर, पैरके दोनों पंजोंको एक सीधमें नार अंगलके अन्तरालसे रखकर आत्मध्यानमें लीन होना कायोत्सर्ग है । २२-२८ शेष ७ गुण-स्नान नहीं करना, दन्तधावन नहीं करना, पृथ्वीपर शयन करना,खड़े होकर भोजन करना, दिनमें एक बार भोजन करना, नग्न रहना और केशलुच करना 1 मुनि क्षुधा, तुषा, शीत, उष्ण, दंश-मशक, नाग्न्य, अर्रात, स्त्री, चर्या, निषचा, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, आलाभ, रोग, तृण-स्पर्श, मल, सत्कारपुरस्कार, प्रसा, अन्जान और अदर्शन इन बाईस परीषहोंको सहन करता है। मनि कष्ट मानेपर सभी प्रकारके उपसगोंको भी शान्तिपूर्वक सहता है। उसके लिये श-मित्र, महल-श्मशान, कंचन-कांच, निन्दा-स्तुति सब समान हैं। यदि कोई उसको पूजा करता है, तो उसे भी वह अशीर्वाद देता है और यदि कोई उसपर तलवारसे बार करता है, तो उसे भी आशीर्वाद देता है। उसे न किसीसे राग होता है और न किसीसे द्वेष । वह राग-द्वेषको दूर करनेके लिये हो साधुआचरण करता है । साषु या मुनिको आवश्यकताएँ अत्यन्त परिमित होती है। नग्न रहनेके कारण उसकी निर्विकारता स्पष्ट प्रतीत होती है। वह विकार छिपाने के लिये न तो लंगोटी ग्रहण करता है और न किसी प्रकारका संकोच ही करता है। साधुका जोवन अकृत्रिम और स्वाभाविक रहता है, किसी भी प्रकारका तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ५३१

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