Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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के सम्पत्तिसम्बन्धी अपहणका निषेध करता है। यह 'अस्तेय' के नामसे अभिहित किया जा सकता है । आध्यात्मिक व्यक्तित्व के विकासके लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति शुद्ध अहिंसात्मक जोवन व्यतीत करे। इस कर्त्तव्यका आधार सत्य और अहिंसा हैं | यदि अहिंसाका अर्थ किसी भी व्यक्तिको मन, वचन और कर्मसे मानसिक और शारीरिक क्षति पहुंचाना है, तो यह स्पष्ट है कि दूसरेकी सम्पत्तिका अपहरण न करना अहिंसाका अंग है। किसीकी सम्पत्तिका अपहरण करनेका अर्थ निस्सन्देह उस व्यक्तिको मानसिक और शारीरिक क्षति पहुंचाना है और उसके व्यक्तित्व विकासको अवरुद्ध करना है । यह कर्त्तव्य हमें इस बात के लिए प्रेरित करता है कि हम भोगोपभोगकी वस्तुओंका अमर्यादित रूपसे सेवन न करें | अपव्ययको भी यह कर्तव्य रोकता है। परिवारके लिए मितव्ययता अत्यावश्यक है । मितव्ययता समस्त वस्तुओंको मध्यम मार्गके रूपमें ग्रहण करनेमें है । सम्पत्तिका अपव्यय या अनुचित अवरोध ये दोनों ही कर्तव्यके बाहर हैं, जब भौतिक वस्तुओं या मानसिक शक्तिका अपव्यय किया जाता है, तो कुछ दिनोंमें व्यक्ति शक्तिहीन हो जाता है, जिससे व्यक्ति, परिवार और समाज ये तीनों विनाशको प्राप्त होते हैं । जो सम्पत्तिसम्मान का आचरण करता है, वह निम्नलिखित वस्तुओं में मध्यम मार्ग या मितव्ययताका प्रयोग करता है
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१. सम्पत्ति !
२. आहार-विहार ।
३. वस्त्र और उपस्कर ।
४. मनोरञ्जनके साधन |
५. विलास और आरामकी वस्तुएँ ।
६. समय ।
७. शक्ति ।
अर्थका प्रतीक सिक्का परिवर्तनका मानदण्ड है और उससे हमारी क्रय शक्तिका बोध होता है। जो व्यक्ति सम्पत्ति प्राप्त करना चाहता है और ऋणसे बचना चाहता है, वह व्ययको आयके अनुरूप बनाकर अभिवृद्धि प्राप्त कर सकता है । विलास और आरामकी वस्तुओं के क्रय करनेमें अपव्यय होता है ।
इस अपव्ययका रोकना परिवारके हितके लिए अत्यावश्यक है। अपव्यय ऐसा मानसिक रोग है जिसके कारण अनुचित लाभ और स्तेयसम्बन्धी क्रियाप्रतिक्रियाएं सम्पादित करनी पड़ती है । वह अनुचित रीतिसे किसीकी
५६२ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य- परम्परा
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