Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 621
________________ किसी एक अवस्थाको देखता और विचार करता है। अत: उसका ऐकांगिक ज्ञान उसीकी दष्टि तक सत्य है। अन्य व्यक्ति उसी वस्तुका अबलोकन दसरे पहलूसे करता है । अतः उसका ज्ञान भी किसी दृष्टिसे ठीक है। अपनी-अपनी दर्शसे वस्तुका विवेचन, परीक्षण और कथन करने में सभीको स्वतन्त्रता है। सभी. का ज्ञान वस्तुके एक गुण या अवस्थाको जाननेके कारण अंशात्मक है, पूर्ण नहीं। जैसे एक ही व्यक्ति किसीका पिता, किसीका भाई, किसीका पुत्र और किसीका भागनेय एक समयमें रह सकता है और उसके भ्रातृत्व, पितृत्व, पुत्रत्व एवं भागनेयत्वमें कोई बाधा नहीं आती। उसी प्रकार संसारके प्रत्येक पदार्थमें एक हो कालमें विभिन्न दृष्टियोंसे अनेक धर्म रहते हैं। अतएव उदारनीति द्वारा संसारके प्रत्येक प्राणीको अपना मित्र समझकर समाजके सभी सदस्योंके साथ उदारता और प्रेमका व्यवहार करना अपेक्षित है। मतभेदमात्रसे किसीको शत्रु समझ लेना मर्खताके सिवाय और कुछ नहीं। प्रत्येक बातपर उदारसा और निष्पक्ष दष्टिसे विचार करना ही समाज में शान्ति स्थापित करनेका प्रमुख साधन है। यदि कोई व्यक्ति भ्रम या अज्ञानतावश किसी भी प्रकारकी भूल कर बैठता है, तो उस भूलका परिमार्जन प्रेमपूर्वक समझाकर करना चाहिए। ___ अहंवादी प्रकृति, जिसने वर्तमानमें व्यक्तिके जीवन में बड़प्पनकी भावनाकी पराकाष्ठा कर दी है, उदारनीतिसे ही दूर की जासकती है। व्यक्ति अपनेको बड़ा और अन्यको छोटा तभी तक समझता है जबतक उसे वस्तुस्वरूपफा यथार्थ बोध नहीं होता। अपनी ही बातें सत्य और अन्यकी बातें झूठी तभी तक प्रतीत होती हैं जबतक अनेक गुणपर्यायवाली वस्तुका यथार्थ बोध नहीं होता। उदारता समाजके समस्त झगड़ोंको शान्त करने के लिए अमोघ अस्त्र है। विधि, निषेध, उभयात्मक और अवक्तव्यरूप पदार्थोंका यथार्थ परिज्ञान संघर्ष और द्वन्द्वोंका अन्त करने में समर्थ है। यद्यपि विचार-समन्वय तर्क क्षेत्रमें विशेष महत्त्व रखता है, तो की लोकव्यवहारमें इसकी उपयोगिता कम नहीं है । समाजका कोई भी व्यावहारिक कार्य विचारोंकी उदारताके बिना चलता ही नहीं है। जो व्यक्ति उदार है, वही तो अन्य व्यक्तियोंके साथ मिल-जुल सकता है । यहां यह ध्यातव्य है कि सत्य सापेक्ष होता है, निरपेक्ष नहीं। हमें वस्तुओंके अनन्त रूपों या पयोषा में से एक कालमें उसके एक ही रूप या पर्यायका ज्ञान प्राप्त होता है और कथन भी किसी एक रूप या पार्मायका हो किया जाता है। अतएव कथन करते समय अपने दृष्टिकोणके सत्य होनेपर भी उस कथनको पूर्ण सत्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसके अतिरिक्त भी सत्य अवशिष्ट रहता है। उन्हें असत्य तो कहा ही नहीं जा सकता, क्योंकि वे वस्तुका ५८० : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परगरा

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