Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 619
________________ प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्योंको मन, वचन और काय द्वारा सम्पन्न करता है तथा अन्य व्यक्तियोंसे अपना सम्पर्क भी इन्होंके द्वारा स्थापित करता है । ये तीनों प्रवृत्तियाँ मनुष्यको मनुष्यका मित्र और ये ही मनुष्यको मनुष्यका शत्रु भी बनाती हैं। इन प्रवृत्तियोंके सत्प्रयोगसे व्यक्ति सुख और शान्ति प्राप्त करता है तथा समाजके अन्य सदस्योंके लिए सुख-शान्तिका मार्ग प्रस्तुत करता है, किन्तु जब इन्हीं प्रवृत्तियोंका दुरुपयोग होने लगता है, तो वैयक्तिक एवं सामाजिक दोनों ही जीवनोंमें अशान्ति मा जाती है। व्यक्तिको स्वार्थमूलक प्रवृत्तियाँ विषय- तृष्णाको बढ़ानेवाली होती हैं; मनुष्य उचित-अनुचितका विचार किये बिना सृष्णाको शान्स करनेके लिए जो कुछ कर सकता है, करता है । अतएव जीवनमें निषेधात्मक या निवृत्तिमूलक मागारका पालन करना आवश्यक है । यद्यपि निवृत्तिमार्गं आकर्षक और सुकर नहीं है, तो भी जो इसका एकबार आस्वादन कर लेता है, उसे शाश्वत और चिरन्तन शान्तिकी प्राप्ति होती है । विध्यात्मक चारित्रका सम्बन्ध शुभप्रवृत्तियोंसे है और शुभप्रवृत्तियोंसे निवृत्तिमूलक भी चासिंग है। कोर्पित समाजको समृद्ध एवं पूर्ण सुखी बनाना चाहता है, उसे शुभविधिका ही अनुसरण करना आवश्यक है । व्यक्तिके नैतिक विकासके लिए आत्मनिरीक्षणपर जोर दिया जाता है । इस प्रवृत्तिके बिना अपने दोषोंको ओर दृष्टिपात करनेका अवसर ही नहीं मिलता । वस्तुत: व्यक्तिको अधिकांश क्रियाएँ यन्त्रवत् होती हैं, इन क्रियाओंमें कुछ क्रियाओंका सम्बन्ध शुभके साथ है और कुटका अशुभके साथ । व्यक्ति न करने योग्य कार्य भी कर डालता है और न कहने लायक बात भी कह देता है तथा न निचार योग्य बातोंकी उलझन में पड़कर अपना और परका अहित भी बैठता है। पर आत्मनिरीक्षणको प्रवृत्ति द्वारा अपने दोष तो दूर किये ही आ सकते हैं तथा अपने कर्तव्य और अधिकारोंका यथार्थतः परिज्ञान भी प्राप्त किया जा सकता है । कर प्रायः देखा जाता है कि हम दूसरोंकी आलोचना करते हैं और इस आलोचना द्वारा हो अपने कर्तव्यकी समाप्ति समझ लेते हैं । जिस बुराई के लिए हम दूसरोंको कोसते हैं, हममें भी वही बुराई वर्तमान है, किन्तु हम उसकी ओर दृष्टिपात भी नहीं करते। अतः समाज धर्मका आरोहण करनेकी पहली सीढ़ी आत्म-निरीक्षण है । इसके द्वारा व्यक्ति घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, मान, मात्सर्य प्रभूति दुर्गुणोंसे अपनी रक्षा करता है और समाजको प्रमके धरातल पर लाकर उसे सुखी और शान्त बनाता है । आत्मनिरीक्षण के अभाव में व्यक्तिको अपने दोषों का परिज्ञान नहीं होता ५७८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा :

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