Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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कारण कुछ अज्ञ व्यक्ति उनका तिरस्कार करते, अपमान करते, शारीरिक यातनाएं देते, उस समय महावीर किसीकी सहायताको अपेक्षा नहीं करते थे। वे अपने पुरुषार्थ द्वारा ही कर्मोका नाश करना चाहते थे। जब इन्द्रने उनसे साधनामार्ग में सहायता करनेका अनुरोध किया, तब वे मौन भाषामें हुए कहने लगे-"देवेन्द्र , तुम भूल रहे हो । साधनाका मार्ग अपने-आपपर विजय प्राप्त करनेका मार्ग है। स्वयंकृत कर्मका शुभाशुभ फल व्यक्तिको अकेले ही भोगना पड़ता है। कर्मावरणको छिन्न करनेके लिये किसी अन्यको सहायता अपेक्षित नहीं है । यदि किसी व्यक्तिको किसी दूसरेके सुख-दुःख और जीवन-मरणका कर्ता माना जाय, तो यह महान् अज्ञान होगा और स्वयंकृत शुभाशुभ फल निष्फल हो जायेंगे। यह सत्य है कि किसी भी द्रव्यमें परका हस्तक्षेप नहीं चलता है। हस्तक्षेपकी भावना हो आक्रमणको प्रोत्साहित करती है। यदि हम अपने मनसे हस्तक्षेप करनेको भावनाको दूर कर दें, तो फिर हमारे अन्तसमें सहज में ही अनाक्रमणवृत्ति प्रादुर्भूत हो जायगी 1 आक्रमण प्रत्याक्रमणको जन्म देता है और यह आक्रमण-प्रत्याक्रमणको परम्परा विश्वशान्ति और आत्मिक शान्तिमें विघ्न उत्पन्न करती है।" इस प्रकार तीर्थकर महावीरके व्यक्तित्वमें स्वावलम्बन और स्वतन्त्रताको भावना पूर्णतया समाहित थी। अहिंसक
महावीरके व्यक्तित्वका सम्पूर्ण गठन ही अहिंसाके आधारपर हुआ है। मनुष्यको जैसे अपना अस्तित्व प्रिय है, अपना सुख अभीष्ट है, उसी तरह अन्य प्राणियोंको भी अपना अस्तित्व और सुख प्रिय है। अहिंसक व्यक्तित्वका प्रथम दृष्टिविन्दु सहअस्तित्व और सहिष्णुता है । सहिष्णुताके विना सहअस्तित्व सम्भव नहीं है । संसारमें अनन्त प्राणी हैं और उन्हें इस लोक में साथ-साथ रहना है। यदि वे एक दूसरेके अस्तित्वको आशंकित दृष्टिसे देखते रहें, सो अस्तित्वका संघर्ष कभी समाप्त नहीं हो सकता है । संघर्ष अशॉन्तिका कारण है और यही हिंसा है।
जीवनका वास्तविक विकास अहिंसाके आलोक में ही होता है । वैर-वैमनस्य द्वेष, कलह, घृणा, ईर्ष्या, क्रोध, अहंकार, लोभ-लालच, शोषण-दमन आदि जितनी भी व्यक्ति और समाजको ध्वंसात्मक विकृतियां हैं, वे सब हिंसाके हो रूप हैं। मनुष्यका अन्सस् हिंसाके विवध प्रहारोंसे निरन्तर घायल होता रहता है। इन प्रहारों का शमन करनेके लिये अहिंसाकी दृष्टि और अहिंसक जीवन ही आवश्यक है। महावीरने केवल अहिंसाका उपदेश ही नहीं दिया, अपितु उसे अपने जीवन में उतारकर शत-प्रतिगत यथार्थता प्रदान की । उन्होंने अहिंसा
नोकर महावीर और उनकी देशना . ६०९