Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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हो जाती है। प्रतिद्वन्द्विता, शत्रुता, सनाव आदि समाप्त हो जाते हैं और समाजके सदस्योंमें सहानुभूति के कारण विश्वास जागृत हो जाता है। ___ संक्षेपमें सहानुभूति ऐसा समाज-धर्म है, जो व्यक्ति और समाज इन दोनोंका मंगल करता है । इस धमक आचरणसे समाज-व्यवस्थाग सुदृढ़ता आती है। अपने समस्त दोषों से मुक्ति प्राप्तकर मानव-समाज एकताके सूत्र में वैधता है।
अहिंसाका ही रूपान्तर सहानुभूति है और अहिंसा ही सर्वजीव समभावका आदर्श प्रस्तुत करती है, जिससे समाजमें संगठन सुदृढ़ होता है। यदि भावनाओं में क्रोध, अभिमान, कपट, स्वार्थ, राग-द्वेष आदि हैं, तो समाजमें मित्रताका आचरण सम्भव नहीं है। वास्तव में अहिंसा प्राणीकी संवेदनशील भावना और सिका रूप है, जो सर्वजीव-समभावसे निर्मित है । समाज-धर्मका समस्त भवन इसी सर्वजोव-समभावकी कोमल भावनापर आधारित है। अहिंसा या सहानुभूति ऐसा गुण है, जो चराचर जगत्में सम्पूर्ण प्राणियोंके साथ मैत्रीभावकी प्रतिष्ठा करता है। किसोके प्रति भी वैर और विरोधकी भावना नहीं रहती। दुःखियोंके प्रति हृदय में करुणा उत्पन्न हो जाती है।
जो किसी दूसरेके द्वारा आतंकित हैं, उन्हें भी अहिंसक अपने अन्तरकी कोमल किन्तु सुदृढ भावनाओंकी सम्पति द्वारा अभयदान प्रदान करता है। उसके द्वारा संसारके समस्त प्राणियों के प्रति समता, सुरक्षा, विश्वास एवं सहकारिताको भावना उस्पन्न होती हैं। अन्याय, अत्याचार, शोषण, द्वेष, बलात्कार, ईर्ष्या आदिको स्थान प्राप्त नहीं रहता। यह स्मरणीय है कि हमारे मनके विचार और भावनाओंकी तरंगें फैलती हैं, इन तरंगोंमें योग और बल रहता है । यदि मनमें हिंसाकी भावना प्रबल है, तो हिंसक तरंगें समाजके अन्य व्यक्तियोंको भी कर, निर्दय और स्वार्थी बनायेंगी। अहिंसाकी भावना रहनेपर समाजके सदस्थ सरल, सहयोगी और उदार बनते हैं । अतएव समाजधर्मको पृष्ठभूमिमें अहिंसा या सहानुभूतिका रहना परमावश्यक है । सामाजिक नैतिकताका आधार : यात्मनिरीक्षण
समाज एवं राष्ट्रकी इकाई व्यक्तिके जीवनको स्वस्थ----सम्पन्न करनेके लिए स्वार्थत्याग एवं वैयक्तिक चारित्रकी निर्मलता अपेक्षित है। आज व्यक्ति में जो असन्तोष और घबड़ाहटकी वृद्धि हो रही है, जिसका कुफल विषमता और अपराषोंकी बहुलताके रूपमें है, नैतिक आचरण द्वारा ही दूर किया जा सकता है, क्योंकि आचरणका सुधारना ही व्यक्तिका सुधार और आचरणका बिगड़ना ही व्यक्तिका बिगाड़ है।
तीर्थकर महावीर और उनकी देवाना : ५७७