Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 616
________________ व्यक्तियोंके मनोभावोंको समझ सकता है। अतः इसप्रकारके व्यक्तिका जीवन समाजके लिए होता है। वह समाजकी नींद सोता है और समाजकी ही नींद जागता है। सहानुभूति ऐसा सामाजिक धर्म है, जिसके द्वारा प्रत्येक सदस्य अन्य सामाजिक सदस्योंके हृदयतक पहुंचता है और समस्त समाजके सदस्योंके साथ एकात्मभाव उत्पन्न हो जाता है। एक सदस्यको होनेवाली पीडा, वेदना अन्य सदस्योंकी भी बन जाती हैं और सुख-दुःखमें साधारणीकरण हो जाता है। भावात्मक ससाका प्रसार हो जाता है और अशेष समाजके साथ उसका रागात्मक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है । सहानुभूति एकात्मकारी तत्व है, इसके अपनानेसे कभी दूसरोंको भत्संना नहीं की जाती और सहवर्ती जनसमुदायके प्रति सहृदयताका व्यवहार सम्पादित किया जाता है। इसकी परिपक्वावस्थाको वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जिसने जीवन में सम्पूर्ण हार्दिकतासे प्रेम किया हो, पोड़ा सही हो और दुःखोंके गम्भीर सागरका अवगाहन किया हो । जीवनको आत्यन्तिक अनभूतियों के संसर्गसे हो उस भावकी निष्पत्ति होती है, जिससे मनुष्यके मनसे अहंकार, विचारहीनता, स्वार्थपरता एवं पारस्परिक अविश्वासका उन्मलन हो जाय। जिस व्यक्तिने किसो-न-किसी रूपमें दुःख और पीड़ा नहीं सही है, सहानुभूति उसके हृदय में उत्पन्न नहीं हो सकती है। दुःख और पीड़ाके अवसानके बाद एक स्थायो दयालुता और प्रशान्तिका हमारे मन में वास हो जाता है। वस्तुतः जो सामाजिक सदस्य अनेक दिशाओं में पीझा सहकर परिपक्वताको प्राप्त कर लेता है, वह सन्तोषका केन्द्र बन जाता है और दुःखी एवं भग्नहृदय लोगोंके लिए प्रेरणा और संवलका स्रोत बन जाता है। सहानुभूतिकी सार्वभौमिक आत्मभाषाको, मनुष्योंकी सो बात ही क्या, पशु भी नैसर्गिकरूपसे समझते और पसंद करते हैं। __ स्वार्थपरता व्यक्तिको दूसरेके हितोंका व्याधात करके अपने हितोंकी रक्षाकी प्रेरणा करती है, पर सहानुभूति अपने स्वार्थ और हितोंका त्यागकर दुसरोंके स्वार्थ और हितोंकी रक्षा करनेकी प्रेरणा देती है। फलस्वरूप सहानभतिको समाज-धर्म माना जाता है और स्वार्थपरताको अधर्म | सहानुभूतिमें निम्नलिखित विशेषताएं समाविष्ट हैं: १. दयालुता-क्षणिक आवेशका त्याग और प्राणियोंके प्रति दया-करुणाबुद्धि दयालुतामें अन्तहित है। अविश्वसनीय आवेशभावना दयालुतामें परि तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ५७५

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