Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 615
________________ (७) अहंकार | इन विनाशकारी तत्त्वोंका आचरण करनेसे समाजका कल्याण या उन्नति नहीं हो सकती है । समाज भो एक शरीर है और इस शरीर की पूर्णता सभी सदस्योंके समूह द्वारा निष्पन्न है । यदि एक भी सदस्य माया, धोखा, छल-प्रपंच और क्रूरताका आचरण करेगा, तो समाजका समस्त शरीर रोगी बन जायगा और शनैः शनैः संगठन शिथल होने लगेगा । अतः हिंसा, आक्रमण और अहंकार की नीतिका त्याग आवश्यक है । जिस समाजमें नागरिकता और लोकहितको भावना पर्याप्त पायी जाती है ि और सुखका उपभोग करता है । सहानुभूति समाज-धर्मोकी सामान्य रूपरेखा में सहानुभूतिकी गणना की जाती है । इसके अभावसे अहंकार उत्पन्न होता है । वास्तविक सहानुभूति प्रेमके रूप में प्रकट होती है । अहंकारके मूल में अज्ञान है । अहंकार उन्हीं लोगों के हृदयमें पनपता है, जो यह सोचते हैं कि उनका अस्तित्व अन्य व्यक्तियोंसे पृथक् है तथा उनके उद्देश्य और हित भी दूसरे सामाजिक सदस्योंसे भिन्न हैं और उनकी विचारधारा तथा विचारधाराजन्य कार्यव्यवहार भी सही हैं। अतः वे समाजमें सर्वोपरि है, उनका अस्तित्व और महत्त्व अन्य सदस्योंसे श्रेष्ठ है । सहानुभूति मनुष्यको पृथक् और आत्मकेन्द्रित जीवनसे ऊंचा उठाती है और अन्य सदस्योंके हृदय में उसके लिए स्थान बनाती है, तभी वह दूसरोंके विचारों और अनुभूतियों में सम्मिलित होता है। किसी दुःखी प्राणी कष्टके संबंधमें पूछ-ताछ करना एक प्रकारका मात्र शिष्टाचार है । पर दुःखीके दुःख को देखकर द्रवित होना और सहायता के लिए तत्पर होना ही सच्चे सहानुभूतिपूर्ण मनका परिचायक है। सच्ची सहानुभूतिका अहंकार और आत्मश्लाघाके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । यदि कोई व्यक्ति अपने परोपकारसम्बन्धी कार्योंका गुणानुवाद चाहता है और प्रतिदान में दुर्व्यवहार मिलनेपर शिकायत करता है तो समझ लेना चाहिए कि उसने वह परोपकार नहीं किया है । विनीत, आत्मनिग्रही और सेवाभावी में ही सच्ची सहानुभूति रहती है । यथार्थतः सहानुभूति दूसरे व्यक्तियोंके प्रयासों और दुःखों के साथ एकलयताके भावकी अनुभूति है। इससे मानवके व्यक्तित्व में पूर्णताका भाव आता है । इसी गुणके द्वारा सहानुभूतिपूर्ण व्यक्ति अपनी निजतामें अनेक आत्माओं का प्रतीक बन जाता है | वह समाजको अन्यसदस्यों की दृष्टिसे देखता है, अन्य के कानोंसे सुनता है, अन्यके मनसे सोचता है और अन्य लोगोंके हृदयके द्वारा ही अनुभूति प्राप्त करता है । अपनी इसी विशेषताके कारण वह अपनेसे भिन्न ५७४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा 1

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