Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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भंग न होने देना तथा बड़ो-से-बड़ो विपत्तिके आनेपर भी समाजको सुदृढ़ बनाये रखनेका प्रयास करना ।
जिजीविषा जीवका स्वभाव है और प्रत्येक प्राणी इस स्वभावको साधना कर रहा है। अतएव माध्यस्थ्य-भावनाका अवलम्बन लेकर विपरीत आचरण करनेवालोंके प्रति भी द्वष, घृणा या ई िन कर तटस्थवृत्ति रखना आवश्यक है। __ संक्षेपमें समाज-गठनका मूलाधार अहिंसात्मक उक्त चार भावनाएं हैं। समाजके समस्त नियम और विधान अहिंसाके आलोक में मनुष्यहितके लिए निर्मित होते हैं। मानवके दुःख और दैन्य भौतिकबाद द्वारा समाप्त न होकर अध्यात्मद्वारा ही नष्ट होते हैं। समाज मल्प, विश्वास और मान्यताएँ अहिंसाके धरातल पर ही प्रतिष्ठित होती हैं। मानव-समाजको समृद्धि पारस्परिक विश्वास, प्रेम, श्रद्धा, जोवनसुविधाओंको समता, विश्वबन्धुत्व, मंत्री, करुणा बोर माध्यस्थ्य-भावना पर ही आधुत है। अतएव समाजक घटक परिवार, संघ, समाज, गोष्ठी, सभा, परिषद् आदिको सदढ़ता नैतिक मूल्यों और आदर्शों पर प्रतिष्ठित है। समाजधर्म : पृष्ठभूमि ___ मानव-समाजको भौतिकवाद और नास्तिकवादने पथभ्रष्ट किया है । इन दोनोंने मानवताके सच्चे आदशोसे च्युत करके मानवको पशु बना दिया है । जबतक समाजका प्रत्येक सदस्य यह नहीं समझ लता कि मनुष्मात्रकी समस्या उसकी समस्या है, तबतक समाजमें परस्पर सहानुभूति एवं सद्भावना उत्पन्न नहीं हो सकती है । जातीय अहंकार, धर्म, धन, वर्ग, शक्ति, घृणा और राष्ट्रके कृत्रिम बन्धनोंने मानव-समाजके बीच खाई उत्पन्न कर दी है, जिसका आत्म. विकासके विना भरना सम्भव नहीं । यस: मानव-समाज और सभ्यताका भविष्य आत्मशान, स्वतन्त्रता, न्याय और प्रेमकी उन गहरी विश्वभावनाओंके साथ बंधा हुआ है, जो आज भौतिकता, हिंसा, शोषण प्रभृतिसे भाराकान्त है।
इसमें सन्देह नहीं कि समाजको संकीर्णताए', धर्मके नामपर की जानेवाली हिंसा, वर्गभेदके नामपर भेद-भाव, ऊंच-नीचता आदिसे वर्तमान समाज प्रस्त है । अतः मानवताका जागरण उसी स्थिति में सम्भव है, जब ज्ञान-विज्ञान, अर्थ, काम, राजनीति-विधान एवं समाज-जीवनका समन्वय नैतिकताके साथ स्थापित हो तथा प्राणिमात्रके साप अहिंसात्मक व्यवहार किया जाय । पशु-पक्षी भी मानवके समान विश्यके लिए उपयोगी एवं उसके सदस्य हैं। अतः उनके साथ ५७२ : तीर्थंकर महापौर और उनकी आवाय-परम्परा