Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 605
________________ है | संस्कारशब्द व्यक्ति के दैहिक, मानसिक और बौद्धिक परिष्कारके लिए किये जानेवाले अनुष्ठानोंसे सम्बद्ध है। संस्कार तीन वर्गों में विभक्त है— १. गर्भान्वय क्रियाएँ । २. दीक्षान्वय क्रियाएँ | ३. क्रियान्वय क्रियाएँ । इन क्रियाओं द्वारा पारिवारिक कर्त्तव्योंका सम्पादन किया जाता हैं । समाजके प्रति सम्मान सामाजिक व्यवस्थाको सुचारुरूपसे संचालित करनेके लिए समाज और व्यक्ति दोनोंके अस्तित्वकी आवश्यकता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसके सभी अधिकार उसे समाजका सदस्य होनेके कारण ही प्राप्त हैं । अतः वह समाज, जो कि उसके अधिकारोंका जनक और रक्षक है, व्यक्ति से आशा रखता है कि वह सामाजिक संस्थाके संरक्षण को अपना प्रधान कत्तंव्य समझें | समाजके प्रति आदर एवं सम्मानको भावना वह भावना है जो व्यक्तिको परम्परागत प्रथाओंको भङ्ग करनेसे रोकती है। चाहे वे परम्पराएँ समाजकी इकाई कुटुम्बसे सम्बन्ध रखती हों, चाहें वे सम्प्रदायसे सम्बन्ध रखती हों अथवा राज्य या राष्ट्रसे। समाज में प्रचलित अन्धविश्वासों और रूढ़िवादी परम्पराओंका निर्वाह कर्त्तव्यके अन्तर्गत नहीं है । कर्त्तव्य वह विवेकबुद्धि है जो समाजकी बुराइयों को दूर कर उसके विकासके प्रति श्रद्धा या निष्ठा उत्पन्न करे । इसमें सन्देह नहीं कि व्यक्तिका समाजके प्रति बहुत बड़ा दायित्व है । उसे समाजको सुगठित, नैतिक और आचारनिष्ठ बनाना है । सत्यके प्रति सम्मान सत्य के प्रति सम्मान या सत्यनिष्ठा व्यक्ति और समाजके विकासके लिए आवश्यक है । सत्य और अहिंसाको साथ-साथ लिया जाता है और इनके आचरण से सामाजिक कल्याण माना जाता है। सत्यके प्रति सम्मान या कर्त्तव्य की भावना क्रियाशीलताके लिए प्रेरित करती है और सत्यपरायण जीवन व्यतीत करनेका आदेश देती है । इस आदेशका अर्थ यह है कि हमें अपने वचनोंके अनुसार ही व्यवहार करना है । जो व्यक्ति अपने जीवनको सत्यके आधार पर चलाता है, उसे व्यावहारिक कठिनाइयों का सामना अवश्य करना पड़ता है, पर सत्यपरायण व्यक्तिको जीवनमें सफलता प्राप्त होती है । यदि व्यक्ति अपना कर्तव्य कर्तव्य भावसे सम्पादित करता है, तो उसका यह ५६४ : तीयंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा 1 i "

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