Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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ही अनेकार्थक मानी जाय पर एक कालमें और एक ही प्रसंगमें वह अनेक अर्थों का द्योतन नहीं कर सकती। अत: पातुओंसे निष्पन्न शब्द भी एक ही गुणधर्मका बोध कराता है। ऐसा कोई एक शब्द नहीं, जो एक साथ अनेक धर्मों का प्रतिपादन कर सके । अतएव यह आवश्यक है कि बस्तुके अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मोका सापेक्षात्मक भाषा द्वारा कथन किया जाय ।
यह पूर्वमें ही बताया जा चुका है कि स्याद्वाद वस्तुमें रहनेवाले सापेक्षिक धोका दृष्टिभेदसे कथन करता है । 'स्यात्' शब्द धातुजनित न होकर अव्ययनिष्पन्न है। यह समस्त विरोधियों में समझौता कर हमें सम्पूर्ण सत्यको प्रतीति कराता है।
सप्तभङ्गी
वस्तुको अनेकान्तात्मकता और भाषाके निर्दोष प्रकार स्याद्वादक कथनके अनन्तर सप्तभङ्गीके स्वरूपपर विचार करना भी आवश्यक है | सातभङ्ग या वस्तुविचारको दृष्टियां मनान्तात्मक नुस्ताहाने विम्लेषण में आनायक हैं। एक वस्तुमें प्रश्नके चशसे प्रत्यक्ष और अनुमानसे अविरुद्ध विधि और निषेधको कल्पनाको सप्तमजी कहते हैं। ये सातभङ्ग निम्न प्रकार है :
१. विधि कल्पना। २. प्रतिषेध कल्पना। ३. क्रमसे विधि-प्रतिषेध कल्पना । ४. युगपत् विधि-प्रसिषेध कल्पना । ५. विधि कल्पना और युगपत् विधि-प्रतिषेध कल्पना । ६. प्रतिषेध कल्पना और युगपत् विधि-प्रतिषेध कल्पना । ७. क्रम और युगपत् विधि-प्रतिषेध कल्पना ।
इस प्रकार विशाल और उदारताकी दृष्टिसे वस्तुके विराट रूपको देखा और समझा जा सकता है। यों तो वस्तुमें अनन्तधर्म रहनेके कारण और एकएक धर्मके विधि-निषेधकी अपेक्षा अनन्तसप्तभंगियां सम्भय हैं। पर विधिनिषेधात्मक रूपमें सात विकल्प मप ही सम्भव हैं। ये सात ही भङ्ग क्यों होते हैं ? इसका उत्तर यह है कि वस्तुके सम्बन्ध में जिज्ञासा सात प्रकारको हाती
१. "प्रश्मवावेकस्मिन् बस्तुन्यविरोणेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभंगी"
--नस्वार्थ राजवातिक, पृष्ठ १-६, पृष्ठ ३६. २. अष्टसहस्री (नाथारंग पाण्डुरंग) पृष्ठ १२५.
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ४७५