Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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(३) अदत्तादान -- वस्तुके स्वामीकी इच्छा के बिना किसी वस्तुको ग्रहण करना, या अपने अधिकारमें करना अदत्तादान है। मार्ग में पड़ी हुई या भूली हुई वस्तुको हड़प जाना भी अदत्तादान है। नीति अनीतिके विवेकको तिलांजलि देकर अनधिकृत वस्तुपर भी अधिकार करनेका प्रयत्न करना चोरी है ।
(४) मैथुन – स्त्री और पुरुषके कामोद्वेगजनित पारस्परिक सम्बन्धको लालसा एवं क्रिया मैथुन है और है यह अग्रा । यह आत्माके सद्गुणोंका विनाश करनेवाला है । इस दोषाचरणसे समाजकी नैतिक मर्यादाओंका उल्लंघन होता है।
इन दोषों
(५) परिग्रह - किसी भी परपदार्थको ममत्वभावसे ग्रहण करना परिग्रह है ! ममत्व, मूर्च्छा या लोलुपताको वास्तवमें परिग्रह कहा जाता है । संसारके अधिकांश दुःख इस परिग्रहके कारण ही उत्पन्न होते हैं । आत्मा अपने स्वरूपसे विमुख होकर और राग-द्वेषके वशीभूत होकर परिग्रह में आसक्त होती है । से लाने सहित क्षमता और योग्यता उत्पन्न होती है । जो श्रावक के द्वादश व्रतोंका पालन करना चाहता है, उसे सप्तव्यसनका त्याग आवश्यक है । द्यूतक्रीड़ा, मांसाहार, मदिरापान, वेश्यागमन, आखेट, चोरी और परस्त्रीगमन ये सातों ही व्यसन जीवनको अधःपतन की ओर ले जानेवाले हैं । व्यसनोंका सेवन करनेवाला व्यक्ति श्रावकके द्वादश व्रतोंके ग्रहण करनेका अधिकारी नहीं है । इसीप्रकार मद्य, मांस, मधु और पंच क्षीरफलोंके भक्षणका त्याग कर अष्ट मूलगुणोंका निर्वाह करना भी आवश्यक है । वास्तबमें मद्यत्याग, मांसत्याग, मघुत्याग, रात्रिभोजनत्याग, पंचोदुम्बर फलत्याग, देववन्दना, जीवदया और जलगालन ये आठ मूलगुण यावकके लिये आवश्यक हैं ।
इसप्रकार जो सामान्यतया विरुद्ध आचरणका त्यागकर इन्द्रिय और मनको नियंत्रित करनेका प्रयास करता है, वही श्रावक धर्मको ग्रहण करता है ।
श्रावक के द्वादश व्रतोंमें पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षायतोंकी गणना की गयी है । वस्तुतः इन व्रतोंका मूलाधार अहिंसा है। अहिंसा से ही मानवताका विकास और उत्थान होता है, यही संस्कृतिकी आत्मा है और है आध्यात्मिक जीवनकी नींव ।
१. मद्यपलमधुनियाशन पञ्च फली विर तिपञ्च वन' सनुती ।
जीवदयाजलगावमिति च क्वचिदष्टमूलगुणाः ॥ - सागारधर्मात २०१८
९१४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा