Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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अर्थका बोध देनेवाली शब्द-रचना या अर्थका शब्दोंमें आरोप निक्षेप है। अप्रस्तुत अर्थको दूर रखकर प्रस्तुत अर्थका बोध कराना हो इसका लक्ष्य है। यह संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय ज्ञानको दूर करता है। मय और निक्षेप
नय और निक्षेपमें विषय-विषयीभावका सम्बन्ध है । विषय-विषयी-मम्बन्ध तथा इस सम्बन्धको किया नय द्वारा ज्ञात की जाती है । नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीन निक्षेप द्रव्याथिक नयके विषय है और भावनिक्षेप पर्यायाथिक नयका । भावमें अन्वय नहीं रहता उसका सम्बन्ध केवल वर्तमान पर्यायसे होता है। अतः यह पांयार्थिक व्यका विषय है। पोको नय और निक्षेप दोनों ही अर्थबोधके साधन हैं। निक्षेपको उपयोगिता
निक्षेपको विवक्षित अर्थको अवगत करनेकी दृष्टि से महती उपयोगिता है । निशेप वक्ताको वस्तुके विवक्षित अर्थका बोध कराता है। भाषा और भावको संगति इसोके द्वारा गठित होती है । निक्षेपको समझे बिना भाषाके प्रास्ताविक अर्थको नहीं समझा जा सकता है। अर्थसूचक शब्दके पहले अर्थको स्थिति सूचित करनेवाला जो विशेषण लगता है, यही इसकी विशेषता है। अत: सविशेषणभाषाका प्रयोग ही निक्षेप है ।
अर्थस्थिति के अनुरूप हो शब्द-रचना या शब्द-प्रयोगको शिक्षा ही अर्थबोधका साधन हैं । अतः अपेक्षादृष्टिको ध्यानमें रखना आवश्यक है । निक्षेपदृष्टि अपेक्षादृष्टि ही है । निक्षेत्रको उपयोगिता निम्न प्रकार सिद्ध है:
१. निश्चय या निर्णयको प्राप्त करना। २. सिद्धान्तप्रतिपादनकी क्षमता। ३. प्रकृत और अप्रकृत अर्थका चोच । ४. संशयका निराकरण । ५. नयदष्टिसे वस्तुस्वरूपका यथार्थ कथन । ६. व्यवहारसिद्धिका राद्धाव।
७. विधि-निर्णयका सद्भाच । निक्षेपके भेव
शब्दसे अर्थका ज्ञान होने में निक्षेप निमित है । निक्षेपके अनन्त भेद सम्भव हैं, पर प्रधानरूपसे चार भेद हैं :--(१) नामनिक्षेप, (२) स्थापलानिक्षेप, (३) द्रव्यनिक्षेप और (४) भावनिक्षेप । ४८२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा