Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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और पर्यायसामान्य या दोनों युगपत् भेदविवक्षामें वचनोंसे अगोधर होकर अवक्तव्य हो जाना है । यह भंग प्रथम और तृतीय भंगके मेलसे बनता है। षष्टमङ्ग स्थानास्ति यवक्तव्यसिसि
व्यस्त पर्याय और समस्त द्रव्यपर्यायको अपेक्षा 'स्यान्नास्ति अवक्तव्य भङ्ग बनता है । वस्तुगत नास्तित्व जब अवक्तव्यके साथ अनुबद्ध होकर विवक्षित होता है, तब गह भङ्ग निष्पन्न होता है। नास्तित्व पर्यायको दृष्टिसे है और पयायें दो प्रकारको होती हैं:-१. सहभाविनी और २. क्रमभाविनी । गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय आदि सहभाविनी तथा क्रोध, मान, माया, लोम शैशव, यौवन, वार्धक्य आदि क्रमभाविनी पयायें हैं। पर्यायष्टिसे गत्यादि और क्रोधादिपर्यायोंसे भिन्न कोई एक अवस्थायो जीव नहीं हैं। किन्तु ये पर्यायें ही जोव हैं । जो वस्तुत्वरूपसे सत् है वही द्रव्यांश है तथा अवस्तुत्वरूपसे 'असत्' है यह पर्यायांश है। इन दोनोंको युगपत् अभेदविवक्षामें वस्तु अवक्तव्य है। __ यह भङ्ग द्वितीय और तृतीय भङ्गके मेलसे बना है। अतः घट कञ्चित् नास्ति और अवक्तव्य हो है। यह कथन पर्यायाथिक नयको प्रधानता और द्रव्यायिक एवं पायाधिक दोनोंको अप्रधानताको अपेक्षासे किया गया है । सप्तमभङ्ग स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्यसिद्धि
पृथक्-पृथक् कमसे अर्पित तथा युगपत् अपित द्रव्यपर्यायकी अपेक्षा वस्तु स्यादस्ति-नास्ति अवक्तव्य है। किसी द्रव्यविशेषकी अपेक्षा अस्तित्व और पर्यायविशेषको अपेक्षा नास्तित्व होता है तथा किसो द्रव्यपर्यायविशेष एवं द्रव्यपर्याय सामान्यको एक साथ विवक्षामें वही अवक्तव्य हो जाता है। यह सप्तम भङ्ग प्रथम, द्वितीय और तृतीय भङ्गके मेलसे बना है।
कुछ चिन्तक उपर्युक प्रकारसे स्यात् अवक्तव्यको तीसरा और स्यादस्तिनास्तिको चौथा भङ्ग मानते हैं। पर कुछ स्यादस्ति-नास्तिको तोसरा और स्यादवक्तब्यको चौथा भङ्ग स्वीकार करते हैं । निष्कर्ष
स्याद्वादको नीव अपेक्षा है और अपेक्षा वहाँ रहती है जहां वास्तविक और ऊपरसे विरोध दिखलाई दे। विरोध वहाँ होता है जहाँ निश्चय रहता है । दोनों सशयशोल अवस्थाओंमें विरोध रहीं बन सकता । स्याद्वादका प्रयोगस्थान अनेका.. न्तात्मक वस्तु है, अतः वस्सुके यथार्थ स्वरूपको ग्रहण करनेके लिये अनेकान्त ४८.० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा