Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
C
ही उत्पन्न होते हैं अतः वहाँ बहिरंग निमिक्त की आवश्यकता नहीं है ।"
वस्तुतः सम्यग्दृष्टि जीवको विपरीत अभिनिवेश रहित आत्माका श्रद्धान होता है तथा साथमें देवगुरु आदिका भी श्रद्धान रहता है। इनमेंसे प्रथमको निश्चय - सम्यग्दर्शन और द्वितीयको व्यवहार-सम्यग्दर्शन कहा जाता है । जो अपना कल्याण करना चाहता है उसे ऐसे होना चाहिये, जिन्होंने अपने पुरुषार्थसे पूर्ण आत्मकल्याण किया है। दूसरे शब्दों में वितराग- सर्वज्ञ और हितोपदेशीकी पहचान करना चाहिये । पश्चात् इनके द्वारा प्रतिपादित श्रुतके ज्ञानका अवलम्बन लेकर अपने आत्म-स्वरूपका निर्णय करना एवं सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे शास्त्र ही उसमें निमित्त बनते हैं और उनकी श्रद्धा के बिना लागे नहीं बढ़ा जा सकता है। जिनकी स्त्री, पुत्र, धन, गृह बादि संसारके निमित्तों में तीव्र रुचि रहती है उन्हें धर्ममें निमित्त देव शास्त्रगुरुके प्रति रुचि उत्पन्न नहीं होती है। अतएव सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशीके वचनोंका अवलम्बन लेकर आत्म-स्वरूपकी प्रतीतिका होना अशक्य है। आत्माका स्वभाव है और यह किसी दूसरेके अधीन नहीं है और न दूसरेके अवलम्बनसे प्राप्त होता है । यह तो अपने को जानने-देखनेसे अपने में ही प्रादुर्भूत होता है। इसी कारण ऐसे महापुरुषों और उनकी वाणीका आश्रय ग्रहण करना पड़ता है जिन्होने अपने में पूर्ण धर्म प्रकट किया है। सम्यग्दर्शन के भेव
उत्पत्तिकी अपेक्षा से सम्यग्दर्शनके दो भेद हैं :- (१) निसगंज और (२) अधिगमज । जो पूर्व संस्कारको प्रवलतासे परोपदेशके बिना ही उत्पन्न होता है वह निसगंज सम्यग्दर्शन कहलाता है। जो परके उपदेशपूर्वक होता है वह अधिगम है । इन दोनों प्रकार के सम्यग्दर्शनोंकी उत्पत्तिका अन्तरंग कारण सात प्रकृतियों का उपशम, क्षय या क्षयोपशम ही है । बाह्य कारणकी अपेक्षा उक्त दो भेद हैं ।
सम्यग्दर्शन के सामान्यतः तोन भेद है : पशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक |
+
१. बाह्यं नारकाणां प्राक्चतुर्थ्याः सम्यग्दर्शनस्य साधनं केवाविज्जातिस्मरणं केषांचिद्धर्मश्रवणं, केषांचिद्वेनाभिभवः । चतुर्थीमारभ्य आ सप्तम्यया नारकाणां जातिस्मरणं वेदनाभिभवश्च । तिरश्चां फेषांचिज्जातिरूपरणं, केषांचिद्धमंश्रवण, चिज्जनबिम्वदर्शनम् । मनुष्याणामपि तथैत्र । देवानां केषांचि जातिस्मरणं, केषांचिज्जिनमहिमदर्शनं केषांचिद्वेषद्धिदर्शनं "
अनुदिशानुत्तरविमानवासनामियं कल्पना न सम्भवति ।
४९६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा