Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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कोई हेतु अवश्य है । जोवक ज्ञान और सुख धर्म हैं, पर इन दोनोंकी जीवमें कमी देखी जाती है । निचार करनेपर दुःखका हेतु जोधका अज्ञान, अश्रद्धा और मिथ्याचरण हैं । अनादिकाल से यह प्राणी अज्ञान वशीभूत होकर इतना बहिर्दष्टि बन गया है और अन्तष्टिरो विमुख हो गया है कि इसे अपने स्वरूपको जाननेकी इच्छा नहीं होती। जिस शरीरमा साथ उसका जन्म और मरण होता है, उसे ही अपना समझकर उसोनी चिन्ता और संबईनमें अपना समस्त जीवन व्यतीत करता है। इस प्राणीने कभी इस बात पर गम्भीरतासे विचार नहीं किया कि मैं शोरो भिन्न स्वतन्त्र आत्म-तत्त्व हूँ। ज्ञान और सूखके निमित्तोंकी ही ज्ञात कर उन्हें हो परमार्थ समझ लिया गया और ज्ञान एवं सुखके परमाय-वाका जानने का चेना नहीं मा तया न इन्हें प्रात करने. का प्रयत्न ही किया।
जोवको परपदायीलोकनःो यह दाट निमित्ताबीन दष्टि है। निमितको हो उसने अपना सर्वस्व समझा और उपदानको ओर लक्ष्य नहीं दिया । उपादानकी ओर यदि कभी दृष्टि गई तो उसे भी निमित्तों के अधीन रामहा । फलतः यह सदा बाहरको ओर ही देखता रहा, भीतरकी ओर नहीं । इसने कर्मजन्य अवस्था या पर्यायको हो सब कुछ समझा है। यह इस बातको भूले हुए है कि द्रव्यकर्म उसको भूलके परिणाम हैं | राग, द्वेष और मोहरूप परिणाम यह जीव उत्पन्न न करता तो द्रव्यकर्मोका बन्ध ही नहीं होता। यदि प्राणो स्वभाव और विभावपरिणत्तिको पूर्णरूपसे समझ जाय और आपनी परिणतिक प्रति सावधान हो जाय, तो पूर्वघद्ध द्रव्यकर्मोंका उदय प्राणीकी परिणतिको विकृत नहीं कर सकता | राग, द्वेष और मोहको त्रिपुटोसे विकृति उत्पन्न होती है और विकृतिसे बन्ध होता है। तथ्य यह है कि जीवके द्वारा किये गये रागादि परिणामोंका निमित्त प्राप्तकर अन्य पुद्गल-स्कन्ध स्त्रय हो ज्ञानावरणादि कमरूप परिणमन करते हैं तथा चैतन्यस्वरूप अपने रागादिपरिणामरूपसे परिणत पूर्वोक्त आत्माको भी पौद्गलिक ज्ञानावरणादिकर्म निमितमात्र होते हैं !'
अशानी जीव राग-द्वेष, मोहादि रूपसे स्वयं परिणमन करता है और इन रागादिभावोंका निमित्त पाकर शुभ और अशुभ, पुण्य और पापरूप कर्म१. जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये ।
स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ।। परिणममानस्य नितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वमविः । भवति हि निमित्तमात्र पोद्गलिक कर्म तस्यापि ।
-पुरुषार्थ सिध्युपाय, पञ्च १२-१३. ४९० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा