Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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है । सच्चा धर्म वही है जो कर्मवन्धनका नाश करा सके। सभी बरमअस्तित्ववादी विचारक आत्मा, परलोक और पुनर्जन्म स्वीकार करते हैं । शरीर जड़ है, जो मृत्युके पश्चात् भी रहता है, पर आत्मा के निकलते ही उसमें निष्कि यता आ जाती है और इन्द्रियों द्वारा जानने-देखनेका कार्य बन्द हो जाता है । इसका प्रधान कारण यह है कि शरीरमेंसे चैतन्य धर्मका विलयन हो गया है । यह आत्मा ही ज्ञाता, द्रष्टा, कर्ता, भोक्ता आदि गुणोंसे सम्पन्न है । इसी कारण इन्द्रियोंके माध्यम से जानने-देखने की क्रिया सम्पन्न होती है । ये विभिन्न क्रियाएँ शरीर या इन्द्रियोंका धर्म नहीं है । ये तो आत्माको क्रियाएं हैं । आत्मा के शरीर से पृथक होते ही चेतनाको क्रियाएँ अवरुद्ध हो जाती हैं। अतः शाश्वत तत्त्व आत्मा है और उसके गुण धर्म है ।
जिस सुखकी चाह में संसारके प्राणी भटकते हैं, वह सुख भी जड़का धर्म नहीं, चेतनका ही धर्म है । यतः मैं सुखी हूँ इस प्रकारकी प्रतीति आत्माके ज्ञानगुणके बिना सम्भव नहीं। इसलिए सुख ज्ञानका ही सहभावो धर्म है। स्पष्टीकरणके लिए यों कहा जा सकता है कि घट पट आदि पदार्थोंको देखकर जो ज्ञान होता है, वह ज्ञान घट-पट आदि पदार्थोंका धर्म नहीं है । हां, ज्ञानके साथ उनका ज्ञेय - शायक सम्बन्ध आवश्यक है। इसी प्रकार हमें अपने अनुकूल वस्तुकी प्राप्तिसे सुख और प्रतिकूल वस्तुकी प्राप्तिसे दुःखका जो अनुभव होता है, वह सुख या दुःख अनुकूल या प्रतिकूल वस्तुका धर्म नहीं है । ये वस्तुएँ हमारे सुख या दुःखमें निमित्तमात्र अवश्य हैं, पर सुख या दुःखका अस्तित्व स्वयं हमारे भीतर विद्यमान है । सुखका खजाना कहीं दूसरी जगह से लाना नहीं है । यह तो हमारे भीतर ही छिपा हुआ है। जो सुखकी खोजमें इधर-उधर भटकते हैं वे ही दुःखका कारण बनते हैं ।
प्रायः यह देखा जाता है कि जो जिसे प्राप्त है, वह उसमें सुखी नहीं है । सुखकी प्राप्तिका इच्छुक व्यक्ति प्राप्त से सन्तुष्ट न होकर अप्राप्त के लिए प्रयत्नशील है। केवल प्राप्तिका यत्न करनेसे हो इष्ट और अभिलषित वस्तुएं उपलब्ध नहीं होती; तथा जो प्राप्त होती हैं उनसे भी उसकी तृष्णा वृद्धिंगत होती जाती हैं, जैसे जलती हुई अग्नि में इन्धन डालनेसे अग्नि बढ़ती है । जिस विषय सेवनको सुख माना है, उसके अतिसेवन से व्यक्तिकी शक्ति क्षीण होती है और अनेक रोगोंका ग्रास बनता है। भोगोंके समान ही भोग-सामग्रीका साधन अर्थ भी सुखके स्थानपर दुःखका ही कारण बनता है और जीवनभर मनुष्यसे दुष्कर्म कराता है । अतः संसार में दुःख है ।
बिना कारण कार्यको उत्पत्ति नहीं होती । उपादान और निमित्त कारण मिलकर ही कार्यके निष्पादक है । अतएव संसार में दुःखके अस्तित्त्वका भी
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ४८९