Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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१. अनादि-नित्य-शुद्ध, २. सादि-नस्य-शुद्ध, ३. स्वभाव-अनित्थ-शुद्ध, ४. स्वभाव-अनित्य-अशुद्ध, ५, विभाव-नित्य-शुद्ध, ६. विभाव-अनित्य-अशुद्ध ।
यों तो वस्तुकी समस्त पर्याय सूक्ष्मदृष्टिसे सादि-सान्त ही होती है । परन्तु जिस प्रकार अर्थपर्यायकी अपेक्षा व्यञ्जनपर्याय अधिक समय तक रहती हई प्रतीत होती है उसी प्रकार वस्तुको कुछ व्यञ्जनपर्यायें भी ऐसी हैं जो अनादि नित्यरूपसे एक ही धाराके रूपमें प्रतीत होती हैं। सामान्यतः व्यंजनपर्याय कोई स्वतन्त्र पर्याय नहीं है किन्तु अनन्त अर्थपर्यायोंका सामूहिक फल है ।
पर्यायाथिक नय उपयुक्त सभी पर्यायोंको विषय करता है।
अभेदग्रहण करनेवालो दृष्टि माथिकना या दवादृष्टि कही जाती है। और भेदग्राहिणो दृष्टि पर्यायाथिकनय या पर्यायदृष्टि । अभेदका अर्थ सामान्य है और भेदका विशेष । वस्तुओं में अभेद और भेदको कल्पनाका आधार-ऊध्र्वता या तिर्यक सामान्य है। अभेदकी एक कल्पना तो एक अखण्ड मौलिक द्रव्य में अपनी द्रव्यशक्तिके कारण विवक्षित है जो द्रव्य या कवतासामान्य काही जाती है। इस कल्पनाश कालक्रमसे होनेवाली क्रमिकपर्यायोंमें ऊपर नीचे तक व्याप्त रहनेके कारण वस्तु कवतासामान्य कहलाती है ! क्रमिकपर्याय और सहभावी गुण व्याप्त रहते हैं। दूसरी अभेदकल्पना विभिन्न सत्तावाले अनेक द्रज्यों में संग्रहको दृष्टिसे की जातो है । इसमें सादृश्यको अपेक्षा रहनेसे सिर्यक् सामान्यका अस्तित्व रहता है । एक द्रव्यको पर्यायोंमें होनेवाली भेदकल्पना पर्यायविशेष कहलाती है और विभिन्न द्रव्योंमें प्रतीत होनेवाली दूसरी भेदकल्पना तिर्यक् कहलाती है। परमार्थतः प्रत्येक व्यगत अभेदको ग्रहण करने वाला नय द्रव्याधिक और प्रत्येक द्रव्यगतपर्यायभेदको ग्रहण करनेवाला नय पर्यायार्थिक कहलाता है। निश्चय और व्यवहारनय ___ आत्मसिद्धिमें प्रयोजनीय दो नय है:-(१) निश्चय आर (२) व्यवहार अथवा {१) पर्यायाथिक और (२) द्रव्यार्थिक | निश्चयनय आत्म-सिदिका हेतु है । निश्चयनयको भूतार्थ और व्यवहारको अभूतार्थ कहा जाता है । व्यवहारनय अभूतार्थ होनेसे अभूत अर्थको प्रकाशित करता है और निश्चयनय शुद्ध होनेके कारण भूतार्थको प्रकाशित करता है । यहाँ अभूतार्थमें नञ् समास किया गया
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ४६३