Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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अतएव ज्ञानसन्तानकी अपेक्षा ज्ञान गुण नित्य है। इसी नित्यको धौथ्य भी कहा जाता है । अपरिणामी ध्रुवत्व इष्ट नहीं हैं। फलितार्थ यह है कि गुण विविध अवस्थाओंमें रहकर भी अपने स्वभावको नहीं छोड़ता, इसी कारण वह नित्य कहा जाता है । यथा-हरा आम पकने पर पीत हो जाता है, तो भी उससे रंग पृथक् नहीं रहता है । इससे स्पष्ट है कि वर्ण, नित्य है यही सिद्धान्त समस्त गुणोंके सम्बन्ध है।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि नित्यताका अर्थ सर्वदा एक-सा बना रहना नहीं है, अपितु परिणमनशीलतायुक्त सततप्रवहमान रहना भी है। किसी भी वस्तु या गुणमें विजातीय परिणमन नहीं होता। जीव बदल कर पुद्गल या अन्य द्रव्यरूप नहीं होता और पुद्गल या अन्य द्रव्य बदलकर जीवरूप नहीं होता। जीव सदा जीव ही बना रहता है और पुद्गल पुद्गल हो । जो द्रव्य जिस रूप में है, उसी रूपमें बना रहता है । जीव चींटीसे हाथी या मनुष्य हो सकता है, पर जीवस्यको कभी नहीं छोड़ सकता । अतएव प्रत्येक वस्तु या गणमें सजासीय परिणमन निरन्तर होता रहता है । प्रायः देखा जाता है कि हमारी बुद्धि विषयके अनुसार सदा परिवर्तित होती है। जो बुद्धि वर्तमानमें पटको जान रही है, वह कालान्तरमें घटको जानने लगती है । इस प्रकार हरा आम कालान्तरमें पीला हो जाता है। अतः इस प्रकार परिणमनोंकी भिन्नताके कारण ही गुणोंको सर्वथा नित्य नहीं माना जा सकसा । इससे सिद्ध है कि गुण कथञ्चित् अनित्य भी हैं ।
तत्त्वतः गुण और पर्याय सर्वथा पृथक्-पृथक् सिद्ध नहीं होते, ये कथञ्चित भेदाभेदात्मक हैं। यदि गुणोंको सर्वथा नित्य और पर्यायोंको सर्वथा अनित्य माना जाय, तो अर्थक्रियाकारित्वका विरोध आता है । गुण और पर्यायोंसे पृथक् द्रव्य नाम की कोई वस्तु नहीं है।
जिस प्रकार वस्तु परिणमनशील है, उसी प्रकार गुण भी परिणमनशील है, अतः निश्चयतः गणमें भी उत्पाद और व्यय ये दोनों होते हैं, उनमें नौव्यकी स्थिति गुणसन्ततिको अपेक्षा प्रत्यभिज्ञानसे सिद्ध है। अतएव गुण स्वयंसिद्ध और परिणामी भी हैं, इसलिए नित्य और अनित्यरूप होनेसे उनमें उत्पाद-व्यय. ध्रौव्यात्मकता भी सिद्ध है।
संक्षेपमें द्रव्यमें भेद करनेवाले धर्मको गुण कहते हैं अथवा जो द्रव्यको द्रव्यान्तरसे पृथक् करता है, वह गुण है । वस्तुफी सहभावी विशेषताका वाचक भो गुण है । द्रव्यके विस्तार-विशेषको भी आचायोंने गुण माना है । गुणके अन्य प्रकारसे तीन भेद हैं:-१. साधारण, २. असाधारण, ३. साधारणासाधारण ।
३२८ : टीपंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा